पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५९

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E मुद्राराक्षस नाय. राक्षस-भद्र ! उठो। देर करने की कोई आवश्यकता नहीं। जिष्णुदास से कहो कि राक्षम चंदन को अभी छुड़ाता है। [खड्ग खींचे हुए 'समर साध' इत्यादि पढ़ता हुआ इधर घर टहलता है। पुरुष-(पैर पर गिरकर ) अमात्य-चरण ! प्रसन्न हों। मैं यह विनती करता हूँ कि चद्रगुप्त दुष्ट ने पहले शकटदास के वध की आज्ञा दी थी। फिर न जाने कौन शकटदास को छुड़ा कर उसको कहीं परदेश में भगा ले गया। आर्य शकटदास के वध में धोखा २७० खाने से चंद्रगुप्त ने क्रोध करके प्रमादी समझकर उन वंधिकों ही को मार डाला। तब से वधिक जो किसी को वधस्थान में ले जाते हैं और मार्ग में किसी को शस्त्र खींचे हुए देखते हैं, तो छुड़ा ले जाने के भय से अपराधी को बोच ही में तुरंत मार डालते हैं। इससे शस्त्र खींचे हुए आपके वहाँ जाने से चंदनदास की मृत्यु में और भी शीघ्रता होगी ( जाता है)। ... राक्षस-(भाप ही आप ) उस चाणक्य बटु का नीतिमार्ग कुछ समझ नहीं पड़ता, क्योंकि- सकट बच्यो जो ता कहैं तो क्यौं घातक घात । जाल भयो का खेल मैं कछु समझ यो नहिं जात ॥ (सोचकर ) नहिं शस्त्र को यह काल यासों मोत जीवन जाइहै। जो नोति सोचें या समय तो व्यर्थ समय नसाइहै। चुप रहनहू नहिं जाग जब मम हित विपति चंदन परयो । तासों बचावन प्रियहिं अब हम देह निज विक्रय करयो । [तजवार फेंककर जाता है. ] इति षष्टांक २८.