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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१८२

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परिशिष्ट ख २१-दु शीलता--दुष्टता, दुम्स्वभाव । चाणक्य का तात्पर्य है कि कार्यों की घबड़ाहट से मैंने चटाई नहीं देखी। इस वाक्य से यह नि भी निकलती है कि उस समय के अध्यापक शिष्यों से शुव्य- वहार नहीं करते थे और चाणक्य का शिष्य से इस प्रकार कहकर एक प्रकार की क्षमा मांगना उसके उच्च विचारों का द्योतक है। कार्य की तसरता से बीज का प्रारंभ होता है। २२-२३-मूल में पितृवधामर्षितेन- सकलनन्दराज्यपरिपणन प्रोत्साहितेन पर्वतकपुत्रेण' मलयकेतु का विशेषण है, जिसका अर्थ है कि पिता-बध के क्रोधित और नंदवंश के संपूर्ण राज्य की प्राप्ति की प्रतिज्ञा से प्रोत्साहित पर्वतक का पुत्र । २८-३१-इन दो पदों में चाणक्य अपनी सामर्थ्य का वर्णन करता है । पहले में अपनी क्रोधाग्नि की शक्ति दिखलाते हुए कहते हैं किदिशारूपी शत्रुओं की स्त्रियों के मुखंदुओं पर शोकरूपी धूम अर्थात् कालिख (पति आदि के मारे जाने के कारण ) लगाकर, वृक्षरूपी मंत्रियों पर नीति रूपी वायु की सहायता से भस्म अर्थात् राख डाल- कर ( उन्हें मोह में डाल कर, आँखों में धूल झोंककर ) नगरवासियों को पक्षियों के समान बिना जलाए ( जो वन में अग्नि लगने से उड़. कर अपनी रक्षा कर लेते है ) और नंदवंश को बाँस के समान जड़ मूल सहित नष्टं करके वह क्रोधाग्नि इसलिए शांत हो गई कि जलने के लिए उसे और कुछ ईधन स्वरूप नहीं मिला। सवैया छद और रूसकालंकार है। भान हित-दूसरी वस्तु (जलने के लिए )।

३३-३६-चाणक्य कहते हैं कि जिन लोगों ने राजा के भय से

मेरा अपमान होने पर धिक नहीं कहा था पर जिनके हृदय में दुष्कर्म का शोच रह गया था, वे देखें कि हमने उस नंद को, अकेल नहीं, धमाज सहित सिंहासन से ऐसा गिराया जैसे सिंह गजराज को पहाड़ पर से गिराता है। साथ ही तात्पर्य यह भी है कि यदि कोई किर हमसे ऐसा बर्ताव करेगा तो वही फल पावेगा । उपमालंकार है। । ३७-३८-चंद्रगुप्त के हेतु-चंद्रगुप्त के रक्षार्थ ।