पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१९१

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१२० मुद्राराक्षस नाटक साँपवाली बात की धुन में एक दोहा कह गए, जो उन्हें याद आ गया और उसी आशय का था। ३५४-३५५-वर्षा ऋतु भा गई पर प्रिया के दूर रहने से विरह का दुःख सता रहा है। अर्थात् प्रिया के रहने से ही क्या लाभ है, जब वह दूरस्थित है जिस प्रकार हिमालय पर की बूटी के होने ही से क्या जब कि वह सर्प के काटे हुए को समय पर न मिले। अप्रस्तुतप्रशंसालंकार है। ३५८.३६१-महाराज नंद की जीवितावस्था में वक्रनास आदि मंत्रिगण, जो बड़े नीतिज्ञ थे, जिस राज्यश्री को स्थिर नहीं रख सवे और जो (उनके लिए ) नष्ट हो गई, वह लक्ष्मी चंद्रगुप्त के पास चली आई। अब वह चंद्र की चंद्रिका के समान चंद्रगुप्त से पृथक नहीं की जा सकती। इसके अनंतर इस प्रथमांक के प्रारंभ के पदों को चाणक्य ने दुहराकर चंदनदास पर अपना प्रभाव डालने का प्रयत्न किया है इसके बाद जीवसिद्धि, तरणक और शकटदास के दंडों का कथन भी डर दिखलाने का ही प्रयत्न है। ____३६५-इटो हटो देश निकाले के समय जो लोग मिलने पारे थे, उन्हें हटा रहे थे। ३७०-६पणक के साधु होने के कारण पहले देशनिकाले का दर सुनकर कारुण्य दिखलाने के लिये आहा ! हा! शब्द किया। ३८५-अर्थात् राक्षस के परिवार को रहने पर तो देवता नहीं और नहीं रहने पर क्या कहूँ। ३८८-चंदनदास को मित्र के रक्षार्थ अपने प्राण को संकट में डालने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ देखकर चाणक्य उसकी प्रशंसा करता है। ३:०-३११-स्वार्थलाम के मार्ग के सुलभ होने पर भी जो उसे दूसरे के हितार्थ छोड़ देता है वैसे दुष्कर कार्य को शिव के बिन कौन कर सकता है ? व्यतिरेक तथा उदात्त अलंकार हैं। यह मूल का अनुवाद है। राजा शिवि ने अन रूपी कबूतर के लिए इंद्र रूपी बाज को स्वशरीर से काटकर मांस दिया था। उसी