पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१९२

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पौराणिक कथा का यहाँ उल्लेख है। नुवाद में वह भाव पूर्णतया . भा गया है या यों कहा जाय कि कुछ उच्चतर हो गया है। अर्थात् हसरे के हितार्थ कोरा धर्म समझकर प्राण देनेवाले शिवि के समान कौन है ? अनुवाद शिवि के कथानक के अनुरूप है और नाटक में मूल के समान ही सुसंगत है । राक्षस का कुटुब दे देने से चंइनदास को राज-कृपा रूपी स्वार्थ नाम होता पर उसने सूली पर चढ़ाने की आज्ञा सुनकर भी धर्म न छोड़ा। ४०२-चाणक्य का अभिप्राय केवल चंदनदास को कैद करने से था क्योकि उसी के द्वारा राक्षस को मिलाने की चेष्टा वह कर रहा था। अपर मे दिखलाने के लिए ये सब धमकियाँ थीं। . . ४०६-४०७-स्वार्थ के लिए सभी प्राण दे सकते हैं। अर्थात् चंदनदास समझता था कि यह प्राणदंड मेरे किसी निज के दोष के कारण न हो कर मित्र के लिए है। ४१०-४११८ चाणक्य का कौशल यही था कि जिस प्रकार चंदन- 'दास अपने मित्र राक्षस के लिए अपना प्राण तृण के समान अर्थात् अप्रिय समझकर त्याग रहा है उसी प्रकार वह भी अपने मित्र के लिए त्याग करने में (चाणक्य मे मित्तं जाने में श्रागा पीछा नहीं करेगा क्योकि साथ ही उसके कुल की भी रक्षा हो जायगी। ___४९६-सिद्धार्थ क आदि सब चाणक्य के संकेत से भागकर राक्षस से जा मिले थे और नाटककार ने 'आपही आप' रखकर यह दिखलाया है कि चाणक्य अपने शिष्य से. भी..अपनी चाल गुप्त रखते थे। ४३१-नीतिकुशल चाणक्यजी अपने शिष्य आदि बाहरी लोगों को समझा रहे है कि गतं न शोचामि । फिर कहते हैं कि- ४३-४३५-जो लोग किसी संकल्प को हृदयंगम करके गए हैं वे सुख से भागें (अथात् सुखपूर्वक संकल्प की पूर्ति करें ) और जो लोग अभी है वे भी यदि चले जायँ तो मुझे कोई शोच नहीं है (क्योंकि स्वयं जानते हैं कि और कोई जानेवाला नहीं है) पर