१३८ मुद्राराक्षस नाटन Hin ३८-मूल का 'कश्चित काल' शन्द छूट गया था, पर पावस्या होने से 'कुछ समय तक बढ़ा दिया गया है। ४२.४५-जब तक शिष्य कार्य नहीं बिगाड़ता अर्थात् अच्छा कार मच्छी प्रकार करता है, तब तक गुरु उसे कुछ नहीं कहता । पर जा वह कुमार्ग की ओर अग्रसर होता है, तब गुरु अंकुशरूपो वचन से उसे उस भोर से निवृत्त करता है ( इसलिए वह गुरु के वाक्य के वशवत है) नि म गुरु के समान संतजन ही संसार में सदा स्वाधीन हैं। कोष्ठक के भीतर का अंश मल में नहीं है । इस अर्थ के अंत मल का कुछ अंश छूट गया है जिसका अर्थ है कि हम इससे अधिक म्वाधीनता पाने की इच्छा से पराङ मुख हैं। उपमेय वचन का कार्य उपमान अंकुश द्वारा होना दिखलाने में परिणामालंकार हुआ। ५२-५४-मूल में शरद वर्णन तीन श्लोकों में किया गया है- (१)धारे धीरे निर्मज होते श्वेत मेघखंड रूपी सिकतामय त सहित, मधुर तथा भव्यक्त ध्वनि करने वाले सारसों से परिव्याप्द, "और रात्रि के संयोग से विचित्र शोभा देनेवाले नक्षत्र-रूपी विकसित 'कुमुदों से अलंकृत सुदीर्घ दस दिशाएँ आकाश से नदी के समान प्रवाहित होती हैं। दिशाएँ नदी के समान और नदी दिशाओं के समान होने से पार स्परिक उपमानोपमेय हुआ, इसलिये उपमानोपमालंकार है । पर कुछ लोगों का मत है कि यह नरमालंकार ही है। . (२) उच्छालित जल ( नदी तालाव आदि ) को अपनी मर्याः, मर्थात स्वाभाविक अवस्था पर स्थित करके, धान के पौधों को अच फसल देकर नत करके और प्रविष के समान मयूरों की मत्तता अपहरण करके शरद ने समग्र संसार को विनम्र बना दिया। अचेतन जल, अल्पचेतन धान और सचेतन मोर को शरद मानों बिनम्र किया, इसलिए उत्प्रेक्षालंकार हुमा । तर विष के समान आदि में उपमा है । 'चाणक्य नीति उच्छखल मलयकेतु को शांत
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