पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिष्ट ख "नमें जिनको कभी किसी के आगे झुकना नहीं पड़ा वे नृप श्रेष्ठ ..अर्थात् चक्रवर्ती सम्राट् ) ही संसार के शिरमौलि है तथा वे अपनी बाबा भग को उसी प्रकार सहन नहीं कर सहते जिस प्रकार सिंह अपने दाँतों का उखाड़ना । अर्थात् जिस प्रकार सिंह अपने दांवों उखाड़ने वालों को नष्ट कर डालता है उसी प्रकार राजा लोग माझा भंग करने वाले का नाश कर डालते हैं। उपमालंकार है। २२३-४-बहुत आभूषणों के धारण कर लेने ही से कोई राजा नहीं होगा। जिसकी आज्ञा नहीं टलती, वही भापके समान वास्तव में राजा है। द्वितीय अंक की ४४३ वीं पंक्ति में राक्षम ने विरघगुप्त द्वारा स्तनकलस नामक कवि को जो आज्ञा भेजी थी, उसी के अनुसार उसने बैतालिक का रूप धारण कर चंद्रगुप्त तथा चाणक्य में भेद उत्पन्न करने के लिए ये अंतिम दोहे कहे थे। . २२८-वस्तुत: 'चाणक्य सो नहीं गया है, अर्थात् उसने पहले से राक्षस की भेद-बुद्धि का पता लगा कर बनावटी कलह करने की तैयारी कर रखी है। २३०-मन में एक लाख मुहर दोनों बैतालिकों को देने की आज्ञा दी गई थी, पर अनुवादक ने उसका दूना कर दिया है। ". २३३-क्रोध से मल के अनुसार बढ़ाया गया है। । २३७-मल के अनुसार वृषल शब्द बढ़ाया गया है।

२४७-मूल में 'ममाज्ञाव्याघातः' है, जो 'ममाझा व्याघात:'

अथवा 'अव्याघात:' हो सकता है। ' , पहले का अर्थ 'मेरी आज्ञा का भंग करना' और दूसरे का "मेरी आज्ञा का अनुल्लंघनीय होना' है । अनुवादक ने यहाँ दूसरा अर्थ लिया है जिसका तात्पर्य मेरी माज्ञा का पालन' है। यही ठीक है, क्योंकि पहला प्रश्न चंद्रगुप्त ही का था और अब वह अपने को स्वतत्र राजा समझ रहा था। .... २५१-अपालन न मानना। म.ना.-.. .. ...: -