१४६ मुद्राराक्षस नाटक .. . चाणक्य ने कौमुदी महोत्सव के प्रतिषेध का प्रथम कारण जान बझ कर भाज्ञा भंग करना बतलाया है और ऐसा क्यों किया उसका कारण भी दो दोहों में दिया है। २५०-५३-मल श्लोक का अनुवाद इस प्रकार है। जिनके तटों पर तमाल वृक्षों के पत्तों से काले हुए घोर वन हैं और जिनके जल बड़ी मछलियों के संचार से खलबलाते रहते हैं, वैसे चारों समुद्रों के प्रांतों तक से आये हुए सैकड़ों राजे तुम्हारी जिस आज्ञा को अवनत-मस्तक होकर फूल की माला के समान सिर पर धारण कर लेते हैं उसका केवल हमारे द्वारा भग होने से तुम्हारा प्रभुत्व विनय गुण से अलंकृत होकर घोषित होता है। अनुवाद में श्लोक का कुछ भाव आगया है, केवल समुद्रों के विशेषण रूपी दोनों वाक्य नहीं आये हैं। व्याघात तथा उपमा- लकार है। ___२६२-स्वति शब्द मंगल-सुचनार्थ पहले दिया गया है। २६३-साधी-राज-कर्मचारीगण, जो राजाभों के साथ रहते हैं। राज-पुरुष। २६४-प्रमाण पत्र-मूल की कुछ प्रतियों में 'परिमाण लेख्य पत्र' और कुछ में प्रमाण लेख्यपत्र लिखा है, पर अनुवाद में प्रतिज्ञा पत्र था जो इस स्थान पर अनुपयुक्त है। इसलिए. उसे प्रमाण- पत्र बना दिया गया है। भागे भागनेवालों की सूची मात्र दी गई है, जिससे भी यही शब्द यहाँ ठीक मालूम होता है। २७०-प्रकृत पत्र पढ़कर सुना दिया, पर उसमें जो रहस्य था उसे अप्रकाश रूप से मन ही में सोच कर रह गए। .. . २८०-राजसेन ने कभी उतना ऐश्वयं देखा नहीं था और जब चंद्रगुप्त की कृपा से उसे सब एक ही बार मिल गया, तब उसे इस बात की चिंता हुई कि जिस प्रकार यह सब एकाएक उसे दिया गया है, उसी प्रकार छिन न जाय । इसलिए वह दूसरे के यहाँ सब ले-दे कर चला गया। यही कारण बतला कर वह मलय केतुं का विश्वस्त सेवक बन गया।
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