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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१८

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. परिशिष्ट ख १४४ खटकती है । श्लोक में चाणक्य कहता है कि जिस राक्षस की चंद्रगुप्त ने इतनी प्रशंसा की है, उसीके देखते हुए उसने नदनाश किया था। दूसरे श्लोक के अनुवाद में गिद्धों की उत्प्रेक्षा की कमी है और अन्य भावों के आते हुए भी वर्णनशैली में कुछ भिन्नता मा गई है। दूसरे श्लोक से यह ध्वनि निकलती है कि चाणक्य की कोपानि अभी बुझी नहीं है। ३६०-यद्वा तद्वा-ऐसा-वैसा । अर्थात् वे अहंकार के कारण किसी प्रकार [ सत्य या असत्य ] समझा देते हैं। मूल में विकत्थन शब्द है जिसका अर्थ भात्मश्लाघा करनेवाला है। ३६२-प्राज्ञा चलाता है-मूत्व में 'आरोढुम् इच्छति है, जिसका अर्थ है भर्त्सना करना चाहता है, अवज्ञा करता है। ३९३-७-मूल श्लोक का अर्थ इस प्रकार है- बँधी हुई शिखा को हमारा हाथ फिर से खोलने के लिए दौड़ता है और चरण भी फिर घोर प्रतिज्ञा करना चाहता है। नंदों के नाश होने से हमारी जो क्रोधाग्नि कुछ शांत हुई थी, उसे तुम कालप्रेरित होकर प्रज्वलित करना चाहते हो। . .. बद्धामपि का अर्थ बधुमिष्टामपि अर्थ लेना होगा, क्योंकि सातवें अंक के अंतिम पृष्ट में केवल हम वाँधत शिखा, निज परतिज्ञा साधि' लिखा है । क्रोधाग्नि के कुछ शांत होने के समान खुली शिखा को कुछ बाँधना अर्थात् बाँधने की इच्छा करना ही अर्थ लेना. ठीक है। अथवा क्रोध में चाणक्य को यह ध्यान न रहा हो कि शिखा अभी तक खुली हुई है। दूसरी प्रतक्षा करते समय विशेष कोर देने को इस बार हाथों के साथ पैरों का भी उल्लेख किया गया है। पर पैरों के साथ 'पुनरपि ठीक नहीं है। . अनुवाद में 'खुजी सिखाहू बाँधिबे चंचल भे पुन हाथ' था। पर शिखा बाँधना हिंदूमात्र का धर्म है, इसलिए वह किसी प्रतिज्ञा की चेतावनी नहीं हो सकती । मूत के अनुसार भी अशुद्ध होने से उसका पाठ बदल दिया गया है, क्योंकि आगे का पुनि शब्द भी