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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२१९

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१५. मुद्राराक्षस नाटक पहले पाठ के विरुद्ध था। सोक के उत्तराधे का भाव दूसरे दोहे में: स्वतंत्रता से व्यक्त किया गया है। ४००.४-इनके नेत्रों की पिंगल वर्ण कांति क्रोध के कारण ऊपर चढ़े हुए पक्ष्मों से निकलते हुए विमल अश्रद्वारा प्रक्षालित और छोटी हुई मानों टेढ़ी भ्र रूपी धूए के साथ एकाएक प्रज्वलित : हो उठी है। पृथ्वी ने इनके पदाघात को उम्र कंपन के साथ इस प्रकार सहन कर लिया है मानों ऐसा ज्ञात होता है कि, उसे रौद्ररस : के अभिनयकारी भगवान के तांडव का स्मरण हुआ हो। ___ दोहे का अर्थ स्पष्ट है, पर श्लोक का वह अधूरा अनुवाद है। श्लोक के रूपक, उत्प्रेक्षा तथा स्मरण अलंकारों का लोप हो गया। १०७-मूल में 'आकाशे लक्ष्यं बद्ध्वा ' अधिक था; इससे 'उपर देखते हुए' बढ़ाकर दोनों कोष्टकों को एक कर दिया गया है। ४०६-१२-मल श्लोक का अर्थ यों है- हे धूर्त ! तुमने चंद्रगुप्त का चाणक्य के प्रति अनुराग कम करके अनायास विजय प्राप्त करने की आशा से जिस भेद नीति का . प्रयोग किया है, वह सब भेदनीति तुम्हारा ही अनिष्ट संपादन करेगी। भाव यह है कि यह भेदनीति चाणक्य और चंद्रगुप्त में वैमनस्य उत्पन्न करने के बदले राक्षस और मलयकेतु में शत्रुता उत्पादित करेगी। इस कारण इसमें विषमालंकार है। अनुवाद में ४१२ वीं पंक्ति मूल से अधिक है। वास्तव में चाणक्य की यह आशा पूर्ण .. हुई । इस झूठे कलह से राक्षस चाणक्य के चरों की ओर से निश्चित. सा हो गया और उसने उसे युद्ध का सुअवसर मान लिया । साथ ही मलयकेतु का चंद्रगुप्त के यहाँ से भागे हुए भागुरायणादि पर विश्वास बढ़ गया कि ये वस्तुतः असंतुष्ट होकर आये हैं। राक्षस चंद्रगुप्त का मंत्री होना चाहता है, इस आशय के . चाणक्य के पुत्र तथा मागुरायण की बातचीत पर भी मलयकेतु को विश्वास होने लगा और उसने भी चंद्रगुप्त को आपत्ति में फँसा समझकर उस समय को युद्ध के लिये उपयुक्त मान लिया।