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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२२५

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'. १५६ १६८-६-'चाणक्य से वैमनस्य हो जाने पर चंद्रगुप्त के भो होने का समय देखते हैं। इसमे भी दो ध्वनि निकलनी भागुरायण इसे दोनों पक्षों में लगा सकता है, जैसे अकेले होने 'चंद्रगुप्त पकड़ा जा सकता है तथा राक्षस चाणक्य का स्थान सकता है। १७७८-पृथ्वींद्र देव नंद का जिसने आसन पर से हटाने। अपमान नहीं सहन किया वह अपने बनाए हुए नृप चंद्र की बात इस प्रकार नहीं सहन करेगा। मूल में अनुवाद से 'पृथ्वींद' शब्द अधिक है। इसमें अर्थापर अलंकार है। १८५८-मूल श्लोक का अर्थ इस प्रकार है- किरीट-निहित रत्नों की चंद्र-समान प्रभा से युक्त ( अधीनस्थ नृपतिगण के मस्तक पर पैर रखने वाता चंद्रगुप्त अपने कर्मचारी के श्राज्ञा भंग दोष को कैसे सहन करेगा। चाणक्य क्रोधी होने पर भी प्रतिज्ञा-पूर्ति के लिए स्वीकृत अभिचार क्रिया के क्लेश का अनुभव कर तथा देवयोग से पूर्णप्रतिज्ञ होकर अब प्रतिज्ञा-भंग के डर स . फिर कोई प्रण न करेगा। . ___ अनुवाद का अर्थ है कि अभिमानी नृप चंद्रगुप्त सब अधिकार लेकर तथा स्वतंत्र होकर अपमान नहीं महेगा। इसी प्रकार चाणक्य एक प्रतिज्ञापूर्ण कर, अपने उद्यम के घमंड को चूर कर तथा दुख पाकर अब कुछ और (प्रतिज्ञा ) नहीं करेगा। अनुवाद में भाव मा गया है पर मूल के भाव व्यक्त करने के प्रभाव नहीं पा सका। प्रतिज्ञा-भंग होने के भय आदि में अति- शयोक्ति अकार है। २००.१-पर्वतक की मृत्यु पर भी मलयकेतु को नाटककार ने कुमार ही लिखा है। राक्षस का ताता है कि चंद्रगुप्त का राज्य छीन कर जब आपको महाराज बना लेंगे। २२८-बढ़ाई करने-इसके स्थान पर पहले दो संस्करणों हारने और हराने शब्द थे, जो मूल के अनसार न थे ।