१५.. अनुचित भी थे, इससे बदल दिए गए क्योंकि उस समय तक वल सेना की यात्रा का विचार ही हो रहा था। २३८-मूल के अनुसार 'इससे वह अंधे के समान कुछ' होना २४०-१-मंत्री और राजा दोनों ही को प्रबल पाकर लक्ष्मी चल सी होकर रहती है पर दोनों के भार असह्य होने पर स्त्री- "पल्य से एक को छोड़ देती है। र प्रस्तुत राज्य लक्ष्मी तथा अप्रस्तुत स्त्री के व्यवहार समारोपण से समासोक्ति अलंकार है । मूल का अर्थ दिया गया है जिसका भाव- अनुवाद में आगया है। -२४३.४-जो राजा बच्चे के समान सदा मन्त्री की गोद में हुने-वाला है अर्थात् जिसने कुल राज्यप्रबंध मंत्री को सौंप दिया वह व्यवहार में कुशल नहीं होता । जिस प्रकार बच्चे गोद से ते ही रोने गाने लगते हैं उसी प्रकार ऐसे राजे मंत्री विना बोत्साह हो जाते हैं और स्वयं कुछ नहीं कर सकते। इसमें उपमा अलंकार है। मूल में गोद के बच्चे के स्थान पर वनपायी बच्चे की उपमा दी गई है। . २५०-४-(शत्रु के मंत्री) चाणक्य पदभ्रष्ट हो चुके हैं. चंद्रगुप्त नये राजा है, पुर ( पाटलिपुत्र, शत्रु की राजधानी ) नंद में अनुरक्त है ( अर्थात् अपने ही पक्ष में है ) और तुम अपने पूर्ण त के साथ उस पर चढ़ाई कर रहे हो। तुम्हारे मंत्री हम बड़े योग के साथ युद्ध को तैयारी कर रहे हैं। जब ऐसा संयोग मिला तब हे राजन् । ऐसी क्या बात है, जो सिद्ध नहीं हो सकता अथात: केवल इच्छा करने की देर है। अनेक कारणों के समावेश से समुच्चयालंकार हुआ। अपना उल्लेख करते समय राक्षस का लजा करना दिखलाया है कि कहीं इसका अर्थ आत्मश्लावा न समझा जाय । इस पद में 'नृप या राजा" लिखा गया है । स्यात् राक्षस के विभय में पूर्ण निश्चय दिखलाने. को नाटककार ने ऐसा किया है।
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