पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४०

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१७२ मुद्राराक्षस नाटक ४१५-मूल में 'जले पर निमक के स्थान पर 'यह फाड़े पर दूसरा फोड़ा' है। ४३३-राक्षस-यहाँ राक्षसों के प्राण संहार करने के गुण से तात्पर्य है अर्थात् मलयकेतु कहता है कि हम राक्षस नहीं हैं अर्थात तुम्हारा प्राण संहार न करेंगे। ४३५-३६-चंद्रगुप्त और चाणक्य से मिल कर तीन हो जायें तो हम तीनों को, जिस प्रकार त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम ) को पाप नष्ट करता है, उसी प्रकार नष्ट करेंगे। ४५९-१२-गंड-(सं०) कपोल, गाल । कन धवल छवावति- धूल के कण छा जाते हैं, धूल सा सफेद हो जाता है। (सेना के घोड़ों के खुरों की चोट से उठतो हुई नए बादल के समान तथा हाथियों के मद (रूपी जल ) से सिंची हुई धूल उब कर त्रियों के (विशेष पुष्पगंध से सुगंधित) दोनों कपोलों को मलिन करतो हई और उनके भ्रमरों के समान काले बालों को सफेद बनात • हुई शत्रुनों के सिर पर गिरे। कोष्ठकों के अश मूल में अधिक हैं । रिपु-विजयार्थ मैन्य समारो वर्णन स्वभावोक्ति है, कपाल तथा बाल का अन्य गुण धारण करने से तद्गुण अलंकार हुश्रा और भ्रमर से अलक में उपमा है। ४.७५०-हम तपोवन चले जायँ पर वहाँ तप से मेरे क्रन चित्त का शांति नहीं मिलेगी। शत्र क जीवित रहते ( स्वामी क अनुसरण करें अथोत् स्वर्ग चले ) प्राण दे दें पर यह त्रियों लिय उपयुक्त है । तलवार लेकर अग्निरूपी शत्रु पर पतंग के समा टूट पड़े ( तो वह भी ठीक नहीं) क्योंकि उससे मेरा नाश तो जायगा पर उस दुस्साहस से चंदनदास का मारा जाना निश्चित जयगा। (इस कारण चंदनदास को मुक्त कराने को मेरा व्यग्र मा यदि कृतघ्न न हो तो मुझे इन कायों से रोके)। ____ काव्यविंग अलंकार है। जाहि, देहि, जाहिं का एक कर्ता हो से दीपकालंकार है।