पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४१

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छठा अंक मलय केतु के पकड़े जाने के अवांतर कार्यसंपादन की सूचना देने तथा राक्षस को चंद्रगुप्त का मत्रित्व ग्रहण करने को बाध्य कर मौर्यश्री के स्थैर्य रूपी महाफल के सिद्धार्थ छठा और सातवाँ अंक आरंभ होता है। सिद्धार्थक चंद्रगुप्त से पुरस्कार रूप गहने आदि पाकर प्रसन्न चित्त होकर चाणक्य की कृतकार्य नीति की जयजयकार मना ४-७-जिनके शरीर का वर्ण श्याम मेघ के समान है और जा केशी के कालरूप थे, उन श्रीकृष्ण जी को जय हो । सुजन मनुष्यों के नेत्रों को चंद्र ( के समान आह्लादजनक ) सम्राट् चद्रगुप्त की जय हो। बिना सैन्यसंचालन के शत्रों को विजय करने वाली चाणक्य की बलशालिनी नीति की जय हो। पहले दोहे के पूर्वाद्ध में भगवान की 'जयघोषणा है । जलद नील- तन में लुप्तोपमा है। कंस ने केशी नामक राक्षस का श्रीकृष्ण को मारने को भेजा था। वह अश्वरूप होकर वृदावन गया और श्रीकृष्ण द्वारा निहत हुआ। (श्रीमद्भागवत स्कं० १० अध्याय ३७) उत्तरार्द्ध में राजा की जयघोषणा है। चंद्रगुप्त और चंद्र में आहादजनकत्व साधय से रूपक हुआ। " दूसरे दोहे में बिना कारण कार्य होने से विभावना अलंकार है। . १२-१३-मूल श्लोक का अर्थ इस प्रकार है- दुःख में चंद्र के समान शीतल और संतापारक तथा सुख में गृहोत्सव के समय सुख बढ़ाने वाले अंतरंगी मित्रों के अभाव से संपदा दुखद होती है। , अनुवाद का अर्थ इस प्रकार है- मित्र के विरहाग्नि की तपन पाने से कम नहीं होती, उत्साह का नाश हो जाता है और बिना मित्र के सभी सुख हृदय को अधिकतर उदास बना देते हैं।