पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८० मुद्राराक्षस नाटक १८२-६४-'कै तेहि रोग असाध्य भयो"तुम्हारे समान है:- . क्या उन्हें कोई ऐसा असाध्य रोग हो गया है जिसके लिए कोई वा आदि प्राप्त नहीं है या भग्नि और विष से बढ़ कर भयंकर राजा क्रोध में फंस गए हैं या किसी स्त्री पर आसक्त हो कर उसके विरह मरणोन्मुख हुए हैं या तुम्हारे समान मित्र-दुःख ही उनकी भी मृत्यु का कारण हो रहा है ? ___ मूल श्लोक का यह सवैया भक्षरशः अनुवाद है केवल मल का स्त्री का विशेषण अनभ्य छूट गया है अर्थात् वह स्त्री जिसे प्राप्त करना असंभव हो। उपमा और रूपक अलंकार है। ११-निदान-रोगों का निणय, रोगों की पहचान । २११-मजानुसार 'उन्हें क्या हुमा ?' बढ़ाया गया है । २२२-२५-जिस धन के जिए स्त्री पति को और पुत्र शन खो कर पिता को त्याग देते हैं, भाई भाई से झगड़ते हैं और दुःख उठा कर भी मित्र सौहार्द्र छोड़ देते हैं उसी को बनिया होकर कुछ न माना और मित्र के दुख से आत होकर दे दिया। इससे तुम्हारा ही धन सार्थक हुआ, तुम्हारे समान संसार में कोई नहीं है। ___ मूल में है कि पिता पुत्र को और पुत्र पिता को शत्रु के समान मार डालते हैं। दोनों पक्ष पर लिखने से भाव अधिक सपल हो गया है। बणिक जाति का मितव्यय प्रसिद्ध है। धन की सार्थकता बतलाने से काग्यलिंग अलंकार और बनियापन के विरुद्ध कार्य करने से विरोधालंकार हुमा । . २३- प्रमंगल-कुसमाचार, मृत्यु आदि से बुरे वृतात। २४४-४५-मित्र की अनुपस्थिति में भी शरणागतों का पालन कर ( रक्षा कर ) तुमने शिवि के निर्मज यश के समान यश इस कराल कलियुग में पाया। मित्र राक्षस के उपस्थित न रहने पर भी उसके पुत्रकलत्रादि की की जिनसे केवल राक्षस के संबंध से ही किसी प्रकार का बंबई