बदाइयाँ पाठवीं शताब्दि के मध्य की है और प्रो० विलसन के सिद्धांत पर उस श्लोकांश के अनुसार म्लेच्छ शब्द आठवीं शताब्दि के मुसलमानों का द्यातक हो सकता हैं। ... ३-प्रोफेसर विलसन ने पाँचवें अंक के प्रारंभिक श्लोक के बारे में जो कुछ कहा है, उसके. विरुद्ध मि० तैलग का कथन है कि नीति-पाद्य और उसके पुष्पों का उल्लेख कालिदास कृत मालविकाग्निमित्र पृ० १० में और भवभूति के वीर-चरित पृ. ६५ में है। उस रूपक का यहाँ अधिक अलंकृत होना पूर्वोक्त मालोचना के योग्य नहीं है। ४-प्रो. विलसन जैन क्षपणक जीवसिद्धि के नाटक में एक पात्र होने को भी मुद्राराक्षस की नवीनता का एक कारण मानते हैं और जैन के लिए पणक शब्द के प्रयोग को भी भारत से बौद्धों के लुप्त होने के बाद के समय का शाब्दिक गड़बड़ समझते हैं ।' यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि प्रफेसर विलसन जैनों के समय को बहुत आधुनिक मानते हैं। श्राधुनिक खोज से उनकी यह युक्ति भी निर्धान्त नहीं रह गई। क्षपणक शब्द के प्रयोग पर जो अापेक्ष है, वह भी अयुक्त है क्योकि उस शब्द का केवल बौद्धों के लिये प्रयोग होता है, ऐसा कहने का कोई कारण ज्ञात नहीं होता। पंचतत्र में जो प्रोफेमर विलसन के उक्त 'समय' के पहले का है, यह शब्द जैनों के लिए आया है पर उसके लिए भी प्रोफेसर साहब वड़ी गड़बड़ी मानते हैं गोविंदानंद की शारीरिक भाष्य की टीका और प्रबोधचंद्रोदय में भी बौद्ध और जैन स्पष्ट भिन्न भिन्न माने गए हैं। प्रोफेसर विलसन ने स्यात् श्रमणक और क्षपणक शब्दों के समझने में स्वयं भूल की है। क्षाक, श्रमणक, अर्हत्, श्रावक और जिन आदि शब्दों का प्रयोग बहुधा दोनों ही मतावलम्बियों के लिये पाया जाता है। दोनों मत ब्राम्हणों की दृष्टि में एक ही से हैं, इससे यह गड़गड़ होना स्वाभाविक है। जीवसिद्धि के जैन
- शंकराचार्य ने जैन मत का खंडन किया है, जो आठवीं शताब्दि के
श्रारंभ में माने जाते हैं । उनके समय में इस मत को अवश्य ही प्रबलता रही होगी, जिसके लिए पाचीन समय में कई शताब्दियाँ लग गई होगी। । वस्तुतः बौद्ध और जैनमत साथ ही साथ चलाए गए थे।