पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/४७

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( ४० ) किया है, उसमें प्रोफेसर विलसन के अनुसार मुद्राराक्षस का रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दि मान लिया है। उस तर्क वितर्क में जेनरल कनिंगहम ने नाटककार के अनुसार पाटलिपुत्र को दोनों नदियों के प्राचीन माग के मध्य में माना है पर ऐसा ठीक नहीं है। वह दोनों नदियों के दक्षिण में स्थित था। तात्पर्य यह कि उक्त विवेचना से कोई फल नहीं निकला। ' E-यहाँ तक जस्टिस तैलंग के इस संबंध की विवेचना का दिग्दर्शन हुआ। अब इसी विषय को लेकर दूसरी प्रकार से विवेचना की जायगी। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के समय के पाटलिपुत्र की स्थिति या अवस्था सेल्य कस के भेजे हुच राजदूत मेगास्थनीज के विवरण में इस प्रकार दी हुई है । 'यह नगर ८० स्टेडिया* लबा और १५ स्टेडिया चौड़ा था। इसके चारों ओर लकड़ी की चहार दीवारी थी, जिसमें तीर चलाने के लिए छिद्र बने हुए थे। इसमें ६४ फाटक और ५७० बुर्ज थे। नगर के एक ओर गंगा और दूसरी ओर सोन की धारा बहती थी। चहार दीवारी के चारों ओर ६०० फीट चौड़ी और ३० हाथ गहरी खाई थी, जिसमें सोन का जल मरा जाता था. अब कवि विशाखदत्त ने पाटजिपुत्र की स्थिति नाटक में किस प्रकार दी है, इसका विवेचना आवश्यक है। तृतीय अंक में चंद्रगुप्त को सुगाँगासाद पर खड़ा कर नाटककार वहाँ से दीखती हुई गंगा पर कटाक्षपात करते हुए शत् पर कविता करते हैं 'ग'गांशरन्यति सिधुपति प्रसन्नाम्' । इसके अनंतर चंद्रगुप्त चार और घूम कर देखते हैं कि कौमुदी महोत्सव नहीं मनाया गया है। इन दोनों अशी से इतना मालूम हुआ कि सुगांगप्रासाद से गंगा दखलाती थी और उसके चारों ओर नगर बसा हुआ था । अर्थात् गगा जी के तट पर नगर था तथा अच्छा प्रकार बसा हुआ था। चौथे अक में मलयातु अपने हालियों की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि 'शोर्ण सिंदूर- .: शोखा मम् गजस्तयो: पास्यात शतशः । इससे यह निश्चित है कि पाटलिपुत्र तक पहुँचने के लिए मजयकेनु को सोन नदी पार करना था। उसी अंक में . स्टेडियम का बहुवचन स्टेडिया है। अनुमानतः एक अग्रेजी मील लगभग १० स्टेडिया के होता है ( स्मिथ की अर्ली हिस्ट्री श्राफ इंडिया पृ० १३५ दि०)