पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/४८

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इसके अनंतर क्षपणक मुहूर्त बतलाते हुए कहता है कि 'तुम्हाणं उत्तलाए दिसाए दक्खिएँ दिसं पत्थिदाणं' । इससे यह ज्ञात हुआ कि पाटलिपुत्र सोन के दक्षिण में है । पूर्वोक्त विचारों से यह निश्चित रूप से शात हो गया क नाटक का लिपुत्र गंगा के तट पर बसा हुआ था और सोन नदी के दक्षिण ओर था अर्थात् गंगा और सोन के मध्य में नहीं रह गया था। ___चद्रगुप्त मौर्य के समय मेगास्थनीज-वर्णित तथा मुद्रार क्षस नाटक के वर्णित पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थतियों में यह विभिन्नता है कि पहले समय में वह गण जी तथा सोन नदी के मध्य में था पर दूसरे समय सोन के दक्षिण और गगा जी के तट पर था। इस कारण यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवि ने घटनाकाल के पाटलिपुत्र की स्थिति का नाटक में समावेश नहीं किया है वरन् अपने ही समय की स्थिति का । अब यह विचारणीय है कि यह स्थिति परिवर्तन कब हुश्रा। फाहियान ने अपने यात्रा विवरण में पाँचवीं शताब्दि के प्रारंभ के पाठलि पुत्र का जो वर्णन दिया है, वह संक्षेप में यों है। 'गड कसानादि का जहाँ गगा जी. से संगम हुश्रा है, वहाँ से नदी उतर का एक यंजन ( साढ़े ६ मील ) दक्षिण किनारे किनारे चलने पर मगध राज्य की राजधानी पुष्पपुर पहुँचा। नगर में अशोक के राजप्रासाद और सभा भवन की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि मध्यदेश में यह नगर सबसे बड़ा तथा समृद्धशाली है।' उस समय की रथयात्रा, पाठशाला, सदावर्त और श्रौषधालय का भी वर्णन है। फाहियान के पूर्वोक्त वर्णन से यह जाना जाता है कि पाटलिपुत्र सोन के दक्षिण में तथा वैभव- शाली होते हुए मगध की राजधानी था । यह वर्णन नाटककार के समय के पाटलिपुत्र का चित्र सा ज्ञात होता है। . सुएनच्वांग ने अपने यात्रा विवरण में पाटलिपुत्र का इस प्रकार वर्णन किया है। गंगा जी के दक्षिण में सत्तर मोल के धेरे का एक प्राचीन नगर है। यद्यपि यह बहुत दिनों से उजाड़ है पर अभी तक बाहरी दीवालें खड़ी हैं। सत्ययुग में इसका नाम कुसुमपुर था, क्योंकि राजा के महल में फूल बहुत थे। त्रेता में इसका काम पाटलिपुत्र था।......प्राचीन महल के उत्तर एक ऊंचा स्तभ है...........उसी के पास स्तर का खंडहर है.........' सपनवांग