पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/७०

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मुद्राराक्षस नाटक प्रस्तावना स्थान-रंगभूमि [रंगशाला में नांद-मंगलपाठ ] भारति नेह नव नीर, नीत बरसत सुरस अथोर । जयति अपूरब घन कोऊ लखि नाचत मन मोर ॥ 'कौन है सौस पै?' . 'चंद्रकला 'कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी?' 'हाँ यही नाम है भूल गई किमि जानत हू तुम प्रानपियारी॥ 'नारिहि पूछत चंद्रहि नाहि 'कहै बिजया जदि चंद्र लबारी' यो गिरिजै छलि गग छिपावत ईस हरौ सब पीर तुम्हारी ॥ पाद-प्रहार सों जाय पताल न भूमि सबै तनु-बोम के मारे । हाथ नचाइबे सों नभ मैं इत के उतं दृष्टि परें नहिं तारे ॥ देखन सा जरि जाहिं न लोक, न खोलत नैन कृपा उर धारे। यो थल के बिनु कष्ट सो नाचत, सर्व हरौ दुख सर्व तुम्हारे ॥ [माँदी-पाठ के अनंतर] सूत्रधार-बस, बहुत मत बढ़ाओ। सुनो आज मुझे सभासदों 'आज्ञा है कि 'सामंत बटेश्वर दत्त के पौत्र और महाराज पृथु पुत्र विशाखदत्त कवि का बनाया मुद्राराक्षस नाटक खेलो ।" व है जो सभा काव्य के गुण और दोष को सब भाँति समझती उसी के सामने खेलने में मेरा भी चित्त संतुष्ट होता है। उपजै आछे खेत में मूरसहू के धान । सघन होन में धान के चहिय न गुनी किसान ॥