पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/७६

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प्रथम अंक और भक्ति की परीक्षा लेकर बहुत से अप्रमादी पुरुष भी शत्रु से रक्षा करने को नियत कर दिए हैं। वैसे ही मेरा सहपाठो मित्र विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण, जो शुक्र-जीति और चौसठों कला से ज्योतिष-शास्त्र में बड़ा प्रवीण है, इसे मैंने पहले ही जैन संन्यासी बनाकर नंदवध की प्रतिज्ञा के अनंतर ही कुसुमपुर में भेज दिया है। वह वहाँ नंद के मंत्रियों से मित्रता, विशेष कर के राक्षस का अपने पर बड़ा विश्वास बढ़ाकर सब काम सिद्ध करेगा। इससे मेरा सब काम बन गया है, परन्तु चंद्रगुप्त सब ६० राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर सुख करता है। सच है, जो अपने बल बिना और अनेक दुःखों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख देता है । क्योंकि- अपने बल सों लावहीं अद्यपि मारि सिकार । तदपि सुखी नहिं होत हैं राजा-सिंह कुमार ॥ [यम का चित्र हाथ में लिये योगी का वेष धारण किये दूत . आता है ] दूत-अरे ! और देव को काम नहिं जम को करो प्रनाम : जो दूजेन के भक्त को प्रान हरत परिनाम ! और उलटे ते हूँ बनत है काज किये अति हेत। जो अम जी सब को हरत सोई जीविका देत ॥ तो इस घर में चलकर जम पट दिखाकर गावें । [घूमता है ] शिष्य -रावल जी ! ड्यौढ़ो के भीतर न जाना। दूत-अरे ब्राह्मण ! यह किसका घर है ? शिष्य हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु चाणक्य का। "दूत-(हँसकर ) अरे ब्राह्मण ! तव तो यह मेरे गुरुभाई ही का १००