मुद्राराक्षस नाटक शिष्य-(क्रोध से ) छिः मूर्ख ! क्या तू गुरूनी से भी धर्म ११० विशेष जानता है ? ... दूत-अरे ब्राह्मण ! क्रोध मत कर, सभी सब कुछ नहीं जानते. कुछ तेरा गुरु जानता है, का मेरे से लोग जानते हैं। शिष्य-(क्रोध से ) मूर्ख ! क्या तेरे कहने से गुरु जी की सर्वज्ञता उड़ जायगी दत-भला ब्राह्मण ! जो तेरा गुरु सब जानता है तो बतलावे कि चंद्र किसको नहीं अच्छा लगता शिष्य-मूर्ख ! इसको जानने से गुरु को क्या काम ? दूत-यही तो कहता हूँ कि यह तेरा गुरु ही समझेगा कि इसके जानने से क्या होता है ? तू तो सूध। मनुष्य है, तू केवल इतना १२० ही जानता है कि कमल को चंद्र प्यारा नहीं है । देख- अदमि होत संदर कमल उलटो तदपि सुभाव । जो नित पूरन चंद सों करत विरोध बनाव ॥ चाणक्य-(सुनकर भाप ही आप ) अहा! " मैं चंद्रगुप्त के बैरियों को जानता हूँ" यह कोई गूढ वचन से कहता है। शिष्य-चल मुझे क्या बेठिकाने की बकवाद कर रहा है। दूत-अरे ब्राह्मण ! यह सब ठिकाने की बातें होंगी। शिष्य -कैसे होंगी। दूत-जो कोई सुनने वाला और सममनेवाला होय । चाणक्य-रावल जी! बेखटकं चले आइए, यहाँ आपको १३०
- सुनने और सममने वाले मिलेंगे।
दूत-पाया ( आगे बढ़ कर । जय हो महारान की। . .. चाणक्य-(देख आप ही आप ) कामों की भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस बात के जानने के लिये भेजा था। भरे जाना, इसे लोगों के जी का भेद लेने को भेजा था। (प्रकाश) आओ आओ, कही अच्छे हो ? बैठो। दूत-जो माज्ञा (भूमि में बैठता है)।