पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/८०

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प्रथम अंक चाणक्य-शारंगरव ! शारंगरव ! शिष्य-भाकर) आज्ञा, गुरुजी ! चाणक्य-बेटा! कलम, दावात, कागज तो लायो। शिष्य-जो माज्ञा। (बाहर जाकर ले जाता है ) गुरुजी ! ले आया। चाणक्य-( लेकर आप ही आप ) क्या लिखू, इसी पत्र से २०० राक्षस को जीतना है। [प्रतिहारी आती है ] प्रति०-जय हो! महाराज की जय हो! चाए क्य-(हर्ष से आप ही आप वाह वाह ! कैसा सगुन हुआ कि कार्यारंभ ही में जय शब्द सनाई पड़ा। (प्रकाश) कहो शोणोत्तरा। क्यों आई हो! प्रति०-महाराज! राजा चंद्रगुप्त ने प्रणाम कहा है और पूछा है कि म पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता हूँ इससे आपकी आज्ञा • हो तो टनके पहिरे आमरणों को पंडित ब्राह्मणों को दूं। चाणक्य -(हर्ष से आप ही आप ) वाह ! चंद्रगुप्त ! वाह ! ११० क्यों न हो। मेरे जी की बात सोचकर संदेश कहला भेजा है। (प्रकाश ) शोणोत्तरा ! चंद्रगुप्त से कहो कि “वाह ! बेटा वाह ! क्यों न हो बहुत अच्छा विचार किया, तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए आभरण गुणवान् ब्राह्मणों को देना चाहिएँ, इससे ब्रहण में चुनके भेजूंगा।" प्रति०-जो आज्ञा, महराज ! ( जाती है)। चाणक्य-शारंगरव ! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जाकर चन्द्रगुप्त से श्राभरण लेकर मुझसे मिले । शिष्य-जो आज्ञा ( जाता है)। चाणक्य-(आप ही आप ) पीछे तो यह लिखें; पर पहिले २२० क्या लिखें? ( सोच कर ) अहा! दुतों के मुख से ज्ञात हुआ है कि उस मलेच्छ-राजसेना में से प्रधान पाँच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं।