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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/८९

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देखकर ) क्या कहा कि 'मैं भी साँप का मंत्र जानता हूँ खेलूँगा? तो आप काम क्या करते हैं, यह तो कहिए ? (फिर आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा-'मैं राज-सेवक हूँ', तो आप तो साँप के साथ खेलते ही हैं। (फिर ऊपर देख कर ) क्या कहा कैसे ?, १० "मंत्र और जड़ी बिना मदारी और आँकुस बिना मतवाले हाथी का हाथीवान , वैसे ही नये अधिकार के संग्राम-विजयी राजा के सेवक, ये तीनों अवश्य नष्ट होते हैं। ( ऊपर देखकर ) यह देखते देखते कहाँ चला गया ? ( फिर ऊपर देखकर ) क्या महाराज ! पूछते हो कि 'इन पिटारियों में क्या है ? ' इन पिटारियों में मेरी जीविका के सर्प है । ( फिर ऊपर देखकर ) क्या कहा कि 'मैं देखू गा ?! वाह वाह महाराज! देखिए देखिए , मेरी बोहनी हुई कहिये इसी स्थान पर खोलू? परन्तु यह स्थान अच्छा नहीं है। यदि आपको देखने की इच्छा हो तो आप इस स्थान में आइए मैं दिखाऊँ। (फिर आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा कि 'यह स्वामीराक्षस मंत्री का घर है. इसमें मैं घुसने न पाऊगा !' तो आप जाय , महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से सभी के घर जाता आता हूँ। अरे! क्या वह गया १ (चारों ओर देखकर ) महा! बड़े आश्चर्य की बात है , जब मैं चाणक्य की रक्षा में चंद्रगुप्त को देखता हूँ तब समझता हूँ कि :- चंद्रगुप्त ही राज्य करेगा, पर जब राक्षस की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चंद्रगुप्त का राज गया सा दिखाई देता है। क्योंकि- चाक्य ने लै बदपि बाँधी बुद्धिरूपी डोर सो। करि अचन लक्ष्मी मोय फुल में नीति के निज जोर सों॥ पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताको करै ॥ ३० गहि ताहि खीचत.आपनी दिसि मोहिं यह जानी परै॥ सो इन दोनों परम नीतिचतुर मंत्रियों के विरोध में नंदकुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है। दोऊ सचिव विरोध सों, जिमि बिच जुग गजराय । हपिनी सी लक्ष्मी विचल इत उत झोंका खाय ॥