पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१०

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आरम्भ है। प्रतिमुख यत्न है। गर्भ प्राप्त्याशा है। अवमर्श निय-ताप्ति है।निर्वहण फलागम है। कार्यावस्था में वस्तु के व्यापारों पर दृष्टि रखी गयी है। सन्धियों मे नाटक-रचना और उसके साधन और शैली की दृष्टि है। संधियों का सम्बन्ध प्रधानतः नाटक के रूप से है वस्तु से नहीं।

इस चर्चा से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि नाटककार ने बड़ी कुशलता से नाटकीय वस्तु को गूंथा है।

नाटक रचना के अन्य अंग--मूल नाटक के अतिरिक्त संस्कृत मे प्रारम्भ और अन्त मे कुछ और भी हुआ करता है। प्रारम्भ में हमें नान्दी मिलता है। नान्दी से अभिप्राय मंगला- चरण से है । मुद्राराक्षस में 'भरित नेह नवनीर ......." यह नान्दी मङ्गलपाठ है। उसके उपरान्त प्रस्तावना है। प्रस्तावना में नाटककार का परिचय, उसके रचने का अभिप्राय तथा नाटकारम्भ की सूचना दी जाती है। सूचना देने के कई ढङ्ग प्रस्तावना में नाटककार अपनाता है। शास्त्रकारो ने ऐसे पॉच ढङ्गों का विशेष उल्लेख किया है। इनमे से मुद्राराक्षस में । 'उद्घघातक' शैली का उपयोग हुआ है। सूत्रधार नटी से चन्द्र- हण न होने सम्बन्धी एक श्लोक पढ़ता है, उसका अर्थ चन्द्र- गुप्त को ग्रसने का लगाकर चाणक्य के द्वारा नाटक प्रारम्भ करा दिया गया है। जहाँ अप्रतीतार्थक अर्थ से प्रतीतार्थक अर्थ निकाल कर उसमे और शब्द जोड़ कर कार्य आरम्म होता है वहाँ 'उद्घाघातक' होता है।

मूल नाटक की समाप्ति में एक भरत वाक्य और रहता है। इसमें कोई कल्याण-कामना अथवा आशीर्वाद रहता है। यह नाटक की कथावस्तु से पृथक वस्तु होती है। राक्षस ने अन्त में जो यह कह कर कि "जो इतने पर भी सन्तोष न हो तो यह