११२ [मुद्रा-राक्षस (एक परदा हटता है और राक्षस आसन पर बैठा हुआ चिन्ता की मुद्रा मे एक पुरुष के साथ दिखाई पड़ता हैं ।) राक्षस-(आप ही आप) चन्द्रगुप्त की ओर के बहुत लोग हमारी सेना में भरती हो रहे हैं इससे हमारा मन शुद्ध नहीं है। क्योंकि- "उत्पलाक्ष इति ख्याति पेशलाक्षतयाः गतः । तत्सू नुस्त्रिशतं सार्धात् वर्षाणामवशान्महीम् ॥ तत्यसू नुहिरण्याक्षः स्वनामाकपुरं ब्यधात् । क्षमा सप्तत्रिंशतबर्पान्सप्तमासाश्च. भुक्तवान् ।। हिरण्यकुलइत्यस्य हिरण्याक्षस्य चात्मजः । षष्टिं पष्टिंच मुकुलस्तत्सू नुरभवत् समा॥ अथम्लेच्छगणाकीण मंडलै चंडचेष्ठितः ।" इत्यादि । यह सम्बन्ध दो तोन बातो से पुष्ट होता है । एक तो यह स्पष्ट सम्भव है कि उत्पलाक्ष का पुष्कराक्ष हो गया हो । दूसरे उन्हीं लोगो के समय उस प्रान्त मे म्लेच्छो का आना लिखा है । तीसरे इसी समय से गान्धार वर्बर आदि देशो के लोगो का व्यवहार यहाँ प्रचलित हुआ। इन बातो से निश्चित होता है कि यही उपलाक्ष का हिरण्याक्ष पुष्कराक्ष नाम से लिखा है, विरोध केवल इतना ही है कि राजतरगिणी में चन्द्रगुप्त का वृत्तान्त नही है।
- इस पाँचवे अङ्क में चार वेर दृश्य बदला है। पहिले प्रवेशक,
फिर भागुरायण का प्रवेश अोर तीसरा यह राक्षस का प्रवेश, चौथा राक्षस का फिर मलयकेतु के पास जाना । नए नाटको के अनुसार चार दृश्यों वा गर्भाकों में इसको बॉट सकते हैं, यथा पहिला दृश्य राजमार्ग, दूसरा युद्ध के डेरों के बीच मे मार्ग, तीसरा राक्षस का डेरा, चौथा मलयकेतु का डेरा।