पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१२८

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११३ पञ्चम अङ्क रहत साध्य ते अन्वित अरु विलसत निज पच्छहि । सोई साधन साधक जो नहिं छुआत बिपच्छहि ।। जो पुनि आपु असिद्ध सपच्छ बिपच्छहु मे सम । कछु कहुँ नहिं निज पच्छ मॉहि जाकौ है संगम ।। नरपति ऐहे साधनन को अनुचित अङ्गीकार करि । सब भॉति पराजित होत है वादी लौ बहुबिधि बिगरि ।

  • न्यायशास्त्र में अनुमान के प्रकरण मे किसी पदार्थ को दूसरे

पदार्थ के साथ बराबर रहते देखकर व्याप्तिजान होता है कि जहाँ पहला पदार्थ रहता है वहाँ दूसरा अवश्य रहता होगा । जैसा रसोई के घर में अग्नि के साथ धूएँ को बराबर देखकर व्याप्तिज्ञान होता है कि जहाँ धुश्रॉ होगा वहाँ अग्नि भी अवश्य होगी । इसी भॉति और कहीं भी यदि दूसरे पदार्थ को देखो तो पहिले पदार्थ का ज्ञान होता है कि वहाँ भी अग्नि अवश्य होगी । इसी को अनुमति कहते हैं । जिसकी बाद में सिद्धि करनी हो उसको साध्य कहते हैं, जैसे अग्नि । जिसके द्वारा सिद्धि हो उसे हेतु अोर साधन कहते हैं, जैसे धूम । जहाँ साध्य का रहना निश्चित हो वह सपक्ष कहलाता है जैसे पाठशाला । जिसमे अनुमिति से. की सिद्धि करनी हो वह पक्ष कहलाता है, जैसे पर्वत । जहाँ साध्य का निश्चय अभाव हो वह विपक्ष कहलाता है, जैसा जलाशय यहाँ पर कवि ने अपनी न्यायशास्त्र की जानकारी का परिचय देने को यह छन्द बनाया है । जैसे न्यायशास्त्र में वाट करने वाला पूर्वोक्त साधनादिको को न जान कर स्वपक्ष स्थापना में असमर्थ होकर हार जाता है, वैसे ही जो राजा (साधक ) सेना आदि साधन से अन्वित है और अपने पक्ष को जनता है विपक्ष से बचता हैं वह जय पाता है । जो श्राप साध्यो (सेना नीति आदिको ) से होन (असिद्ध') है और जिसको शन मित्र का ज्ञान नहीं है और जो अपने पक्ष को नहीं समझता और अनुचित सावन का (अर्थात् शत्रु से मिले हुए लोगों का ) अङ्गकार करता साध्य