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पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१३२

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पञ्चम अङ्क ११७ . मनुष्य -जो अमात्य की प्राज्ञा। (बाहर जाता है अाभरण लेकर अाता हैं ) अमात्य ! अलंकार लीजिए। राक्षस-(अलंकार धारण करके) भद्र! राजकुल में जाने का मार्ग बतलायो। प्रतिहारी-इधर से आइए। राक्षस-अधिकार ऐसी बुरी वस्तु है कि निर्दोष मनुष्य का भी जी डरा करता है। सेवक प्रभु सों डरत् सदाहीं। पराधीन सपने सुख नाहीं॥ जे ऊँचे पद के अधिकारी । तिन को मन ही मन भय भारी ।। सबही द्वेष बड़ेन सो करहीं । अनुछिन कान स्वामि,को भरहीं। जिमि जे जनमे ते मरै, मिले अवसि बिलगाहिं । तिमि जे अति ऊँचे चढ़े, गिरि हैं संसय नाहिं । प्रतिहारी-(आगे बढ कर ) अमात्य ! कुमार यह बिराजते हैं, आप जाइये। राक्षस-अरे कुमार यह बैठे हैं। लखत चरन की ओर हू, तउ न देखत ताहि । अचल दृष्टि इक और ही, रही बुद्धि अवगाहि।। कर पैधारि कपोल निज, लसत भुको अवनीस । दुसह काज के भार सो, मनहु निमित भो सीस ॥ बहुत कठिन है। संस्कृत के शब्द भी यूनानी मे इतने बदल जाते हैं जिसका कुछ हिसाब नहीं । चन्द्रगुप्त का ऐन्द्रोकोत्तस वा सन्ड्रोकोटस पाट- लिपुत्र का पालीवोत्रा वा पालीभोत्तरा । तक्षक का तैक्साइल्म । यही बात यदि हम यूनानी शब्दों का संस्कृत के सादृश्यानुसार अनुवाद करे तो उप- स्थित होगी। अलेकेजैन्डर एलेकजेन्दर इत्यादि का फारसी सिकन्दर हुआ। ,