पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१३३

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११८ मुद्रा राक्षस (* आगे बढ़ कर) कुमार की जय हो! मलयकेतु-आर्य्य । प्रणाम करता हूँ। आसन पर विराजिए । राक्षस-( बैठता है) मलयकेतु-आर्य ? बहुत दिनों से लोगों ने आप को नहीं देखा। राक्षस-कुमार। सेना को आगे बढ़ाने के प्रबन्ध मे फसने के कारण हम को यह उपालम्भ सुनना पड़ा। मलयकेतु-अमात्य ! सेना के प्रयाण का आप ने क्या प्रबन्ध किया है, मैं भी सुनना चाहता हूँ। राक्षस-कुमार! आपके अनुयायी राजा लोगों को यह आज्ञा दी है (आगे खस अरु मगध इत्यादि छन्द पढ़ता है) मलयकेतु-(आप ही आप') हॉ! जाना जो हमारे नाश करने के हेतु चन्द्रगुप्त से मिले हैं वही हम को घेरे रहेगे (प्रकाश) आर्य ! अब कुसुमपुर कोई आता है या वहाँ जाता है कि नहीं? राक्षस-अब यहाँ किसी के आने जाने से क्या प्रयोजन ! पाँच छः दिन में हम लोग ही वहाँ पहुँचेंगे । मलयकेतु - (आप ही आप ) अभी सब खुल जाता है (प्रगट) -- हम यदि इन शब्दो को संस्कृत Sanskritised करे तो अलक्षेन्द्र वा श्रीकेन्द्र वा श्रीकन्दर वा शिक्षेन्द्र इत्यादि शब्द होगे, अब कहिए कहाँ के शब्द कहाँ जा पड़े इसो से ठीक ठीक नाम ग्राम का निणय होना बहुत कठिन है । केवल शब्द विद्या के पण्डितो के कुतूहल के हेतु इतना भी लिखा गया।

  • यहीं पर चौथा दृश्य प्रारम्भ होता है।

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