पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

छठा अङ्क १२६ पुर ही की ओर वह आते हैं, यह आर्य चाणक्य को समाचार मिला है। समिद्धार्थक-मित्र ! नन्दराज के फिर स्थापन की प्रतिज्ञा करके स्वनाम तुल्य पराक्रम अमात्य राक्षस, उस काम को पूरा किए विना फिर कैसे कुसुमपुर आते है ? सिद्धार्थक-हम सोचते हैं कि चन्दनदास के स्नेह से। समिद्धार्थक-ठीक है, चन्दनदास के स्नेह ही से। किन्तु तुम सोचते हो कि चन्दनदास के प्राण वचेंगे ? सिद्धार्थक-कहाँ उस दीन के प्राण वचेंगे ? हमी दोनों को वध- स्थान मे लेजाकर उसको मारना पड़ेगा। समिद्धार्थक-(क्रोध से) क्या आर्य चाणक्य के पास कोई घातक नहीं है कि ऐसा नीच काम हम लोग करें। सिद्धार्थक-मित्र ! ऐसा कौन है जिसको इस जीवलोक में रहना हो और वह आर्य चाणक्य की आज्ञा न माने ? चलो, हम लोग चांडाल का वेप बनाकर चन्दनदास को न मे ले चलें। (दोनों जाते हैं) इति प्रवेशक। बाहरी प्रान्त मे प्राचीन यारी { फाँसी हाथ में लिए हुए एक पुरुप प्राता है) पुरुष-पट गुन सुदृढ़ गुयी मुख फॉसी। जय उपाय परिपाटी गॉमी ॥