पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६१

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१४६ मुद्रा-राक्षस रोक्षस-(आप हो आप ) अब क्या करें (प्रगट) हॉ! मैं देख रहा हूँ। ( सेवको के सङ्ग राजा आता है) राजा-(आप ही अाप ) गुरूजी ने बिना युद्ध ही दुजय शत्रु का कुल जीत लिया इसमे कोई सन्देह नहीं, मैं तो बड़ा लजित हो रहा हूँ, क्योंकि- है विनु काम लजाय करि, नीचो मुख भरि सोक । सोवत सदा “निपङ्ग में, मम यानन के थोक ।। सोवहिं धनुष उतार हस, जदपि सकहि जगजीत । जा गुरु के जागत सदा, नीति निपुण गत भीति।। (चाणक्य के पास जाकर) आर्या ! चन्द्रगुप्त प्रणाम करता है। , चाणक्य-वृषल ! अब सब असीस सच्ची हुई इससे इन पूज्य अमात्य राक्षस को नमस्कार करो, यह तुम्हारे पिता के सब मन्त्रियों मे. मुख्य है। राक्षस-(आप ही आप ) लगाया न इसने सम्बन्ध ! राजा-(राक्षस के पास जाकर ) आर्य! चन्द्रगुप्त प्रणाम, करता है। राक्षस-( देख कर आप ही श्राप ) अहा ! यही चन्द्रगुप्त है ! होनहार जाको उदय, बालपने ही. जोइ। राज लह्यौ जिन बाल गज, जूथाधिप सम होय ॥ (प्रगट.) महाराज ! जय हो। राजा-आर्य! तुम्हरे आछत बहुरि गुरु, जागत नीति प्रवीन । कहहु कहा या जगत में, जाहि न जय हम कीन।। ₹ 15 3 1