पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१९१

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नींद और परिश्रम की दशा में लक्ष्मी को अत्यन्त प्यारे लगने वाले ऐसे नेत्र हमारी बाधा दूर करें।

पृष्ठ ९८―एक गुनी तिथि.....लाभ अनेक।

तिथि का फल एक गुना, नक्षत्र का फल चौगुना, लग्न का फल तीन गुना होता है सब पत्रों में यही कहा है। जिस लग्न में क्रूर ग्रह न हों वह शुभ होती है यहाँ पर केतु है पर अस्त है। यदि शुभ मुहूर्त में सन्देह है तो चन्द्र का बल जो लग्न से लाख गुना अधिक है देख कर जाओ तो अनेक लाभ प्राप्त होंगे।

अथवा उत्तरार्द्ध दोहा का अर्थ―ग्रह तो शुभ है परन्तु क्रूर- ग्रह अर्थात् केतु (मलयकेतु) को छोड़कर जाओ। चन्द्र बल भद्रभट आदि को साथ लो तब तुम्हारा कल्याण होगा अर्थात् तुम मंत्री हो जाओगे।

पृष्ठ १००―देश और काल को समझना ही मानों कलश है इसमे बुद्धि रूपी जल भरा है जिसके सींचने से चाणक्य की नीति रूपी बेलि बहुत फल देवेगी।

पृष्ट १२८―केशी एक राक्षस था जो कंस का भेजा हुआ कृष्ण को मारने गया था। उसने घोड़े का रूप धर कर उनकी बॉह पकड़ ली। उन्होंने अपनी भुजा लम्बी और गर्म कर दी जिससे वह मर गया।

पृष्ठ १२१―यह फाँसी मुख अर्थात् सिरे पर छःगुनी रस्सी से गुथी हुई है और फन्दा की भाँति बनी हुई है, उसकी जय होवे। जिसकी प्रत्येक गाँठ शत्रु वध मे दक्ष है ऐसी चाणक्य की नीति की डोरी, तेरी जय होवे।

पृष्ठ १४१―लोग ऐसा कहते हैं कि शकटदास बच गया तो फिर मारने वाले क्यों मारे गये इसका भेद कुछ समझ में नहीं आता

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