पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/३५

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मुद्रा-राक्षस


नान्दी पाठ के अनन्तर*

सूत्रधार―बस! बहुत मत बढ़ाओ, सुनो, आज मुझे सभासदों की आज्ञा है कि सामन्त बटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृशु के पुत्र विशाखदत्त कवि का बनाया मुद्रा-राक्षस


और भी

पादस्याविर्भवन्तीभवनतिमवने―रक्षतः स्वैरपातै-
संस्कोचेनैव दोष्णां मुहुरभिनयतः सर्व्वलोकातिगानाम्।
दृष्टिं लक्ष्येपु नोग्रा ज्वलनकणमुचं वघ्नतो दाहेभीते–
रित्याधारानुरोधात् त्रिपुरविजयिनः पातु वो दुःखनृत्तम्॥२॥

अर्थ।

‘यह आपके सिर पर कौन बड़भागिनी है?’ ‘शशि कला है।’ ‘क्या इसका यही नाम है! हाँ यही तो, तुम तो जानती हो फिर क्यो भूल गई’? ‘अजी हम स्त्री को पूछती हैं, चन्द्रमा को नहीं पूछती ‘अच्छा चन्द्र की बात का विश्वास न हो तो अपनी सखी विजया से पूछ लो’ यों ही बात बनाकर गंगाजी को छिपा कर देवी पार्वती को ठगनें की इच्छा करने वाले महादेवजी का छल तुम लोगों की रक्षा करें।

दूसरा।

पृथ्वी झुकने के डर से इच्छानुसार पैर का बोझ नहीं दे सकते, ऊपर के लोकों के इधर उधर हो जाने के भय से हाथ भी यथेच्छ नहीं फेक सकते, और उसके अग्निकण से जल जायंगे इसी ध्यान से किसी की ओर भर दृष्टि देल भी नही सकते; इससे आधार के संकोच से महादेव जी का कष्ट से नृत्य करना तुम्हारी रक्षा करे।

  • नाटको मे पहले मंगलाचरण करके तब खेल आरम्भ करते हैं।

इस मङ्गलाचरण को नाटकशास्त्र में नान्दी कहते हैं। किसी का मत हैं कि नान्दी पहले ब्राह्मण पढता है, कोई कहता है सूत्रधार ही और किसी का मत है कि परदे के भीतर से नान्दी पड़ी या गायी जाय।