पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/३९

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२२ मुद्रा-राक्षस नटी-आर्य ! यह पृथ्वी ही पर से चन्द्रमा को बचाना चाहता है। सूत्र-प्यारी मैंने भी नहीं लखा, देखो, अब फिर से यही पढ़ता हूँ और अब जब वह फिर योलेगा तो मैं उसकी बोली से पहिचान लूंगा कि कौन है। शास्त्री जी से एक दिन मुझ से इस विषय में फिर वात्तां हुई है। शास्त्री जो को मैंने मुद्रा-राक्षस की पुस्तक भी दिखलायी। इस पर शास्त्रीजी ने कहा कि मुझको ऐसा मालूम होता है कि यदि उस दिन उपराग का सम्भव होगा तो सूर्यग्रहण का होगा। क्योंकि बुधयोग अमा- वस्या के पास होता भी है। पुराणो मे स्पष्ट लिखा है कि राहु चन्द्रमा का ग्रास करता है और केतु सूर्य का, और इस श्लोक में केतु का नाम भी है इससे भी सम्भव होता है कि सूर्यउपराग रहा हो। तो चाणक्य का कहना भी ठीक हुआ कि केतु हटपूर्वक क्यो चन्द्र को प्रसा चाहता है अर्थात् एक तो चन्द्रग्रहण का दिन नहीं दूसरे केतु का चन्द्रमा ग्रास का विषय नही क्योकि नन्द-वीर्यजात होने से चन्द्रगुप्त राक्षस का वध्य नहीं है । इस अवस्था मे 'चन्द्रम् असम्पूर्ण मण्डल' चन्द्रमा का अधूरा मण्डल यह अर्थ करना पड़ेगा। तब छन्द में 'चन्द्र विम्ब पूरन मए'. के स्थान पर 'बिना चन्द्र पूरन भए' पढ़ना चाहिए । बुध का बिम्ब प्राचीन भास्कराचार्य के मतानुसार छः कला पन्तह विकला के लगभग है। परन्तु नवीनो के मत से केवल दश विकला परम हैं। परन्तु इसमें कुछ सन्देह नही कि यह ग्रह बहुत छोटा है क्योंकि प्राचीनो को इसका ज्ञान बहुत कठिनता से हुआ है, इसलिए इसका नाम ही बुध, श, इत्यादि हो-गया । यह पृथ्वी से ६८६३७७ इतने योजन की दूरी पर मध्यम मान से रहता है और सदा सूर्य के अनुचर के समान सूर्य के पास ही रहता है एक पाठ अर्थात् तीन राशि भी सूर्य से आगे