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द्वितीय अंड़्क

इन दुष्ट चैरिन सो दुखी-निज अङ्ग, नाहिं सेवारिहौ।
भूषन बसन सिंगार तब लौं हौं, न तन कछु धारिहौं॥
जब लो न सब रिपु नाभि, पाटलिपुत्र फेर बसाइहौं।
हे कुंवर! तुम को राज दै, सिर अचल छत्र फिराइहौ॥

चुकी---अमात्य! आप जो न करो सो थोड़ा है, यह बात कौन कठिन है? पर कुमार की यह पहिली विनती तो मानने ही के योग्य है।

राक्षस---मुझे तो जैसी कुमार की आज्ञा माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की आज्ञा सानने में कोई विचार नहीं है।

कंचुकी---(आभूषण पहिराता है) कल्याण हो महाराज! मेरा काम पूरा हुआ।

राक्षस---मै प्रणाम करता हूँ।

कंचुकी---मुझ को जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी की (जाता है)

राक्षस---प्रियम्यदक! देख तो मेरे मिलने को द्वार पर कौन खड़ा है।

प्रियम्बदक---जो आज्ञा (आगे बढ़ कर सपेरे के पास आकर) आप कौन हैं?

सँपेरा---मैं जीर्णविष नामक सँपेरा हूँ और राक्षस मन्त्री के साम्हने मैं सॉप खिलाना चाहता हूँ। मेरी यह जीविका है।

प्रियम्बदक---तो ठहरो हम अमात्य से निवेदन करलें (राक्षस के पास जाकर) महाराज! एक सपेरा है, वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है।