पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०
मुद्रा-राक्षस

राक्षस---(बाँई आँख का फड़कना देख कर आप ही आप) हैं आज पहिले ही साँप दिखाई पड़े (प्रकाश) प्रियम्बदक! मेरा सॉप देखने को जी नहीं चाहता सो इसे कुछ देकर बिदा कर।

प्रियम्बदक---जो आज्ञा (सपेरे के पास जाकर) लो, मन्त्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हे यह देते हैं, जाओ।

सँपेरा---मेरी ओर से यह बिनती करो कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ किन्तु भाषा का कवि भी हूँ, इससे जो मन्त्रीजी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ़लें (एक पत्र देता है)।

प्रियम्बदक---(पत्र लेकर राक्षस के पास आकर) महाराज! वह सॅपेरा कहता है कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ। इससे जो मन्त्री जी मेरी कविता मेरे मुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ़लें (पत्र देता है)।

राक्षस-(पत्र पढ़ता है)

सकल कुसुम रस पान करि, मधुप रसिक सिरताज।
जो मधु त्यागत ताहि लै, होत सबै जगकाज॥

(आप ही आप) अरे!!---"मैं कुसुमपुर का वृतान्त जानने वाला आपका दूत हूँ" इस दोहे से यह ध्वनि निकलती है। अह! मैं तो कामों से ऐसा घबड़ा रहा हूँ कि अपने भेजे भेदिया लोगों को भी भूल गया।

अब स्मरण आया, यह तो सँपेरा बना हुआ विराध-गुप्त सुकुमपुर से आया है। (प्रकाश) प्रियम्बदक! इस को बुलायो, यह सुकवि है, मैं भी इस की कविता सुना चाहता हूँ।