पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/८

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कार्यअवस्थायें ये हैं-

१ प्रारम्भ--प्रारम्भ में मूलकथा का सूत्रपात होता है और किसी फल की कामना की जाती है। प्रथम अंक में चाणक्य ने राक्षस को वश में करने और चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाने की जो इच्छा प्रकट की है वह फल की कामना है। उसी के लिए नाटक अग्रसर होता है। इसी अंक में हमें इस आरंभ से पूर्व के वृत्त का भी पता चल जाता है।

२ यत्न--फल को प्राप्त करने की चेष्टा को यत्न कहा जाता है। राक्षस और मलयकेतु का चाणक्य के विश्वास पात्र व्यक्तियों से घिर जाना और राक्षस तथा मलयकेतु का विश्वास प्राप्त कर लेना यत्न के अन्तर्गत है।

३ प्राप्तयाशा--विघ्न उठते हैं और उनका निराकरण होता जाता है; इसमे फल प्राप्ति की संभावना दिखाई पड़ती है। राक्षस के प्रयत्न विघ्न की भांति हैं। स्तनकलश कवि के गीत भी विघ्न हैं। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की कलह भी इसी के अन्तर्गत हैं। राक्षस के प्रयोग निष्फल होते जाते हैं और राक्षस प्राप्ति की संभावना प्रतीत होने लगती है।

४ नियताप्ति--फल प्राप्ति अब संदिग्ध नहीं रह गयी। स्पष्ट ही फल सामने दीखता है। जीवसिद्ध और सिद्धार्थक के पकड़े जाने पर मलयकेतु का राक्षस का त्याग तथा मित्र राजाओं का मार डालना, मलयकेतु का पकड़ाजाना, ये सब नियताप्ति के अन्तर्गत हैं। फल के विरोध सब नष्ट हो चुके हैं। अब राक्षस कब चाणक्य के हाथ में पड़े बस यही देर है।

५ फलागम--फल की प्राप्ति । राक्षस का समर्पण और मंत्रित्व ग्रहण फल के पर्याय हैं। इनकी प्राप्ति हो जाती है। नाटक समाप्त हो जाता है।