पृष्ठ:मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद.djvu/१७

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मेघदूत।


धीरे धीरे आषाढ़ बीत चला। सावन समीप आगया। तब यक्ष ने सोचा कि यक्षिणी के वियोग में मेरी तो यह दशा है, मेेरे वियोग में उसकी, न मालूम, क्या दशा हो। ऐसा न हो जो कहीं वह प्राण ही छोड़ दे। अतएव अपने कुशल-समाचार उस तक पहुँचाना चाहिए। लावो, इस मेघ ही को दूत बनाऊँ। मेघ सब कहीं जा सकता है। यह सोच कर उसने कुछ जङ्गली फूल तोड़े। उन्हें अञ्जली में लेकर वह मेघ के सामने खड़ा हुआ। फिर उन्हीं फूलों का अर्घ देकर उसने प्रेमर्पूवक मेघ का स्वागत किया। तदनन्तर वह उस मेघ से प्रीतिपूर्ण बातें करने लगा।

ज़रा इस यन्त्र की नादानी को तो देखिए। आग, पानी, धुवें और वायु के संयोग से बना हुआ कहाँ जड़ मंत्र और कहा बड़े ही चतुर मनुष्यों के द्वारा भेजा जाने योग्य सन्देश! परन्तु वियोग- जन्य दुःख से पागल हुए यक्ष ने इस बात का कुछ भी विचार न किया। उत्सुकता और आतुरता के कारण उसे इस बात का ध्यान ही न रहा कि बेचारा मेघ भला किस तरह सन्देश ले जायगा। बात यह है कि जिस दशा में यक्ष था उस दशा को प्राप्त होने पर लोगों की बुद्धि मारी जाती है। वे चेतन और अचेतन पदार्थो का भेद ही नहीं जान सकते। अतएव जो काम जिसके करने योग्य नहीं उससे भी उसे करने के लिए वे प्रार्थना करने लगते हैं।

यक्ष ने कहा—भाई मेघ! पुष्करावर्तक नामक विश्व-विख्यात मेघों के वंश में तो तेरा जन्म हुआ है। इन्द्र का तू सदा-सर्वदा का साथी है। शक्ति तुझमें ऐसी है कि जैसा रूप तू चाहे वैसा ही

घर सकता है—छोटा, बड़ा, लम्बा, चौड़ा हो जाते तुझे देर भी नहीं