लोग उञ्जयिनी के रूप में स्वर्ग के ही एक कान्तिमान् खण्ड को पृथ्वी पर उठा लाये हैं।
उज्जयिनी क्षिप्रा नदी के तट पर बसी है। अतएव, नदी के जल के स्पर्श से वहां के पवन में सदा शीतलता रहती है। वह नायक के सदृश चतुर है। वह नायक ही की तरह अनुनय-विनय तथा सेवा-शुश्रूषा करना खुब जानता है। प्रातःकाल खिले हुए कमलों से मैत्री करके---उनसे मेल-मिलाप करके--उनकी सुगन्धि से वह सुगन्धित हो जाता है, मत्त मरालों के रव को वह और भी अधिक उन्नत कर देता है, स्त्रियों के कोमल कलेवरों पर उत्पन्न हुए श्रमजनित पसीने को वह सुखा भी देता है। मुझे आशा है, ऐसा रसिक और चतुर पवन तुझे भी अवश्यही आनन्द-दायक होगा।
उज्जयिनी की नारियाँ स्नान करने के अनन्तर सुगन्धित धूप जलाकर उसके धुवें से अपने गीले केशो को सुखाती हैं। वह सुरभिसुन्दर धुवाँ महलों की खिड़कियों से सदा ही निकला करता है। उससे तेरा शरीर-विस्तार बढ़ जायगा---उसे यदि तू पी लेगा तो खूब परिपुष्ट हो जायगा---क्योकि धुवेंही के अंश-विशेष से तो तेरा शरीर बना है। अतएव, उज्जयिनी के महलों के ऊपर पहुँचते ही तुझे अपने पुष्टि-साधन का अच्छा मौका मिल जायगा। इसके सिवा वहाँ तेरा आदर भी खूब होगा। वहाँ नागरिकों ने मोर पाल रक्खे हैं। वे तुझसे बन्धु-भाव रखते हैं। इस कारण ज्योंही तू वहाँ पहुँचेगा त्योंही वे नाच नाच कर तेरा स्वागत करेंगे।
शय्या, पूजा और श्रृङ्गार आदि के लिए रक्खे हुए फूलों से उज्जियनी के महल सदाही सुगन्धित रहते हैं। उसकी छतें ललित