सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०
मेघदूत ।

मलिल को, जो सोने के सुन्दर सरोरुह उत्पन्न करता है, पेट भर पीना ! फिर अपनी वारि-बूँदरूपी वसन को ऐरावत के मुख पर डाल कर-वारिदों को उपहार-सदृश देकर-उसे प्रसन्न करना, तदनन्तर अपने जल-कणों से आई हुई वायु बहा कर कल्पवृक्षों के पत्ररूपी परां का खूब हिलाना । यह सब करके स्फटिक के समान शुभ्र और सुन्दर उम पर्वत पर अपनी काली काली लाया डालता हुअा जहाँ जी चाहे वहाँ घूमना । वह पर्वत मेरा परम मित्र है। अतएव वहाँ तेरी रोक-टोक करनेवाला कोई नहीं ! वह तुझे अपने अपर यथेच्छ घूमने फिरने देगा।

मित्र मेव ! उसी कैलास-पर्वत के अङ्क में, गङ्गाजी के ठीक तट पर, मेरी निवास-भूमि अलका नाम की नगरी है। उसे नू देखते ही पहचान लेगा । कलाम की प्रान्तभूमि में जाह्नवी के किनार वसी हुई वह नगरी उस कामिनी के सदृश मालूम होती है, जो अपने कान्त की गोद में बैठी है और जिसकी सफेद साड़ी का छोर वायु से उड़ रहा है। शुभ्र जल के बड़े बड़े बूँद बरसानवाले कृष्ण-वर्ण-धागे तुझे वह अपने ऊँचे ऊँचे महलों के ऊपर इस तरह धारण कर लेगी जिस तरह कि बड़े बड़े मोती गुंथे हुए केश-कलाप को कामिनी अपने सिर पर धारण करती है। तुझे आया देख वह कृतार्थ हो जायगी और सिर आँखों पर तुझे स्थान देगी।

---