पृष्ठ:मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद.djvu/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६०
मेघदूत


वहाँ के महल शुभ्र मणियों के हैं ! कोई महल ऐसा नहीं जिसमें मणियां पक्षों न की गई हों ! इस कारण रात को नक्षत्रों और तारों की छाया जब उन पर पड़ती है तब ऐसा मालूम होता' है मानों उन पर फूल बिछे हैं। उन महलों में सदा ही नाच-राग- रड्ड हुआ करता है। जिम समय मन्द मन्द मृदङ्ग बजते हैं, मालूम होता है कि वादल गरज रहा है। सस्त्रीक यक्ष उन्हीं महलों मे रहते हैं और कल्पवृक्ष के कुसुमों से तैयार की गई मदिरा पी पी कर आनन्दपूर्वक विहार किया करते हैं।

अलका की अभिसारिका स्त्रियाँ अपने अपने प्रेमियों से मिलने के लिए कभी कभी रात को बाहर निकलती हैं । जल्दी जल्दी चलन के कारण राह में कहीं उनकी अलकों से मन्दार के फूल गिर जाते हैं. कहीं कर्णफूलवन् पहने हुए कनक कमल कानों से खिसक पड़ते हैं, और कहीं हृदयस्थल की उँचाई के कारण, डोरा टूट जाने से, हार के मोती विखर जाते हैं। प्रातःकाल इन चीज़ों को पड़ी देख लोग तत्काल ताड़ जाते हैं कि इसी राह से अभिसारिकायें गई हैं।

यक्षों के दीपक मणियों और रत्नोही के हैं। वे कभी बुझते ही नहीं। उन्हें कभी जलाने की ज़रूरत भी नहीं होती । अपने स्थान से वस्त्र खिसक जाने पर, यक्षों की अल्पवयस्का अङ्गनाये, लज्जित होकर , कुमकुम आदि मुट्ठी में लेकर उसे, सामने रक्खे हुए बड़ी लौ वान्ने उन रत्न-प्रदीपों पर, फेंकती हैं कि वे बुझ जायँ; परन्तु उनका यह प्रयन्न व्यर्थ जाता है । भला रत्नों के भी दीप कही

बुझ सकते हैं ? आखिर को वे मुग्धाही तो ठहरी । मुग्ध जनों को

का ज्ञान कहाँ