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मेरी आत्मकहानी
 


लाहौर छोड़कर अमृतसर मे आ बसे। यहाँ वे पुनः अपनी अवस्था के सुधारने मे लगे, पर एक बार की विगड़ी बात के बनाने में बड़ी कठिनता होती है। यदि सब कठिनाइयों दूर भी हो जायँ तो भी प्राय अधिक समय की अपेक्षा रहती है। अस्तु, कई कारणो से मेरे कनिष्ठ पितामह लाला हरजीमल काशी चले आए और यहाँ व्यापार करने लगे। उन्होने एक मारवाड़ी से साझा कर 'हरजीमल हरदत्तराय' के नाम से कपड़े की एक बड़ी कोठी खोली। यह कोठी लक्खी-चौतरे पर थी। ऊपर के हिस्से में मारवाडी महाशय के घर के लोग रहते थे और नीचे कोठी होती थी। इस व्यापार में उन्हे अच्छी सफलता प्राप्त हुई। दिन दिन लाला हरजीमल का वैभव बढ़ने लगा। मकान भी हो गया, नौकर-चाकर भी देख पड़ने लगे। सारांश यह कि लक्ष्मी के आने से जो खेल-तमाशे होते हैं वे सब देख पड़ने लगे। पर यह सब माया लाला हरजीमल के जीवन-काल मे ही बनी रही। उनके आँख बंद करते ही सारा खेल उलट गया। लाला हरजीमल के लड़को मे फूट फैली। पहले बड़ा लड़का, जो उनकी पहली स्त्री से था, अलग होकर अमृतसर चला गया। दूसरी स्त्री से चार लड़के और एक कन्या हुई। इन लड़को की दशा क्रमशः बिगड़ती गई और उनमें से दो का देहांत हो गया, वीसरे का पता नहीं कि कहाँ है। अस्तु, लाला हरजीमल के स्वभाव से मेरे ज्येष्ठ पितामह प्राय असंतुष्ट रहते थे। इसका यह भी एक कारण हो सकता है कि एक धनपात्र था तथा दूसरा धनहीन। परंतु जहाँ तक मेरा अनुभव है, कनिष्ठ के कुटिल और कपटी रहने पर भी दोनो में