पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२२
मेरी आत्मकहानी
 

तीन स्थानों के मालिक हुए। इनके पीछ घनश्याम राय और उनके पीछे कृष्णराम राय हुए। कृष्णराम राय को औरंगजेब ने सन् १६९४ में एक फरमान भेजा और इन्हें बर्दवान आदि स्थानों का चौधरी और जमींदार माना। इनके पीछे जगत राय गद्दी पर बैठे और इन्हें भी सन् १६९७ में औरंगजेब ने एक फरमान भेजा। इस समय इनके अधीन पचास महाल थे। जगत राय के अनंतर कीर्तिचंद्र और चित्रसेन राय क्रमशः उत्तराधिकारी हुए। चित्रसेन राय को सन् १७४० में राजा की पदवी मिली। सन् १७४४ मे राजा तिलकचंद बर्दवान की गद्दी पर बैठे। इन्हें दिल्ली में राजा बहादुर की पदवी और चारहजारी का मनसब मिला। आगे चलकर इन्हें महाराजाधिराज की पदवी और पंचहजारी का मनसब मिला। सन् १७७१ मे महाराजाधिराज तेजचंद ६ वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे और सन् १८३२ तक राज्य करते रहे। इनके पीछे महाराजाधिराज महताबचंद गद्दी पर बैठे। सन् १८६४ में ये वाइसराय की कौंसिल के सदस्य नियत हुए। बंगाल के ये पहले रईस थे जो इस कौंसिल के सदस्य बने। सन् १८७७ में इन्हे १२ तोपों को सलामी दी गई। सन् १८७९ मे महाराजाधिराज आफताबचंद महताब गद्दी पर बैठे, पर निस्संतान होने के कारण उन्होंने राजा बनबिहारी कपूर के ज्येष्ठ पुत्र को गोद लिया जो महाराजाधिराज विजयचंद महताब बहादुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् १९०० में ये नाबलिग थे और राजा बनविहारी कपूर राज्य का सब प्रबंध करते थे। हम लोगों ने सोचा कि इन्हें सभापति बनाने का उद्योग करना चाहिए। अतएव