हम लोग इनसे मिलने बर्दवान गए। सब तथ्य निवेदन किया गया और सभापति के लिये प्रार्थना की गई। उन्होंने उस समय तो कोई उत्तर नहीं दिया,पर सोचकर अपना निश्चय बताने का वचन दिया। कुछ दिनों बाद हम लोग फिर उनसे मिलने गए। वे आगा-पीछा कर रहे थे। महाराज आफताबचंद के समय से खत्रियों में इस राजवंश को लेकर अनेक झगड़े उठ खड़े हुए थे। कोई इन्हें जातिच्युत रखना चाहते थे और कोई इनका साथ देते थे। जहाँ तक मुझे पता चला है, यह ज्ञात होता है कि कुछ लोगो को यहाँ से पुष्कल धन मिलता था। जिनको नहीं मिलता था वे द्वेषाग्नि से जलकर उनका विरोध करते थे। जिस समय हम लोग इनमे मिलने गए उस समय भी इस वंश को लेकर खत्रियों में मतभेद था और कभी-कभी तो यह मतभेद लट्ठबाजी तथा मुकदमेबाजी तक में परिणत हो जाता था। काशी में इस विवाद को लेकर बहुत टंटा खड़ा हुआ था। खूब लट्ठबाजी हुई थी और मुकदमे भी चले थे। निदान इन सब बातों को सोचकर राजा बनविहारी कपूर इस सोच-विचार में पड़े कि यह काशीवासी त्रिमूर्ति हमे कांफ्रेंस में ले जाकर अप्रतिष्ठित न करें और इस प्रकार कुछ विरोधियों का बदला चुकावें। मैंने राजा साहब को आश्वासन दिया कि आप किसी बात की आशंका न करें। इस समय खत्री-जाति की सहायता करने से आपका यश बढ़ेगा और संभव है कि बहुत कुछ मनमुटाव दूर हो जाय। अंत में राजा साहब ने अपनी स्वीकृति दे दी और हम लोग प्रसन्नचित्त लौट गए। कलकत्ते में कार्य समाप्त
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