पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२४
मेरी आत्मकहानी
 

कर हम लोग काशी आए और बरेली-कांफ्रेंस की तैयारी होने लगी। यथासमय इसका अधिवेशन हुआ। राजा साहब ने अपना भाषण अँगरेजी में लिखा था। मुझे इसका अनुवाद करने के लिये कहा गया। उस समय कुछ ऐसा उत्साह, साहस और अभ्यास बढ़ा हुआ था कि मैं चट खड़ा हो गया और मन में अँगरेजी पढ़ता और हिंदी में उसका अनुवाद कहता जाता था। इस पर मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने मेरी प्रशंसा करके मुझे उत्साहित किया। अस्तु, कांफ्रेंस सफलतापूर्वक हो गई और उसमे निश्चित प्रस्तावों के अनुसार राजा साहब से प्रार्थना की गई कि वे एक आवेदन-पत्र तैयार करके रिजले साहब को दें। यथासमय यह पत्र तैयार हुआ। इसमें अकाट्य प्रमाणो से यह सिद्ध किया गया कि खत्री वैदिक काल के क्षत्रियों की संतान हैं। यथासमय रिजजे साहब ने इसे स्वीकार किया और खत्रियों की गिनती क्षत्रियों में हुई। यह कांफ्रेंस बड़ी सफलतापूर्वक हुई। कहीं कोई आपत्ति न खड़ी हुई और जाति से किसी के छेकने का प्रश्न भी न उठा। साथ ही बर्दवानराज्यवंश, जो वर्षों से जातिच्युत होने के झगड़े में पड़ा रहा, इस कांफ्रेंस के कारण मान्य खत्रियों में गिना जाने लगा। इस पर राजा साहब बड़े संतुष्ट और प्रसन्न हुए। उनके एक विश्वासपात्र प्राइवेट सेक्रेटरी थे। वे एक भीमकाय बंगाली महाशय थे! उन्होंने एक दिन मुझसे कहा कि राजा साहब तुमसे बड़े प्रसन्न हैं। वे तुम्हें तीस हजार रुपया देना चाहते हैं। मैंने उत्तर दिया कि यह उनकी कृपा है, पर उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार के रुपये देने से जाति