१६२ मेरी आत्मकहानी थीं। स्कूल-कमेटी में प्रधानता साहवंश और वसुवंश की थी। स्कूल में उस समय एक मुकर्जी महाशय थे। ये वसुवंश मे प्राइवेट ट्यूटर थे। वहाँ जाकर वे विशेषकर धन अध्यापकों की निंदा किया करते थे जो बंगाली नहीं थे। स्कूल के बंगाली अध्यापको में एक दल धीरे-धीरे उन लोगों का बना जो बंगालियों का पक्ष समर्थन और अवंगालियों का विरोध करता था। इसके केंद्र उस समय पं० कालीप्रसन्न चक्रवर्ती थे। ये गणित के अध्यापक थे, पर अत्यंत सीधे थे। प्रारंम में बाबू हरिदास मुकर्जी नामक एक भीमकाय और डरावनी आकृति के अध्यापक इनके साथ शास में बैठते थे, जिसमें लड़के उत्पात न मचा सकें। जिस समय और बंगाली अध्यापक "मास्टर महाशय" कहकर इनके पास दौड़ते और कान में कुछ फुसफुसाते उस समय मुझे बड़ी चिढ़ होती, पर मैं कुछ कर सकने में असमर्थ था। अंत में मैंने एक उपाय निकाला। गर्मियो की छुट्टी में स्कूल का टाइमटेवुल बनाना मेरा काम था। एक वर्ष मैने घोर परिश्रम कर ऐसा टाइमटेबुल बनाया जिसमें यथासंभव किसी दलविशेष के ने अध्यापकों को एक साथ किसी घटे में छुट्टी न मिले । इससे स्कूल में पड्यंत्र की रचना बंद हो गई। कालो बाबू की प्रकृति में अब बड़ा परिवर्तन हो गया है। वे शुद्ध साधु स्वभाव के सवन हैं। उन्हें न सिी से कुछ लेना, न कुछ देना है, अपने फाम से ही प्रयोजन है। यदि स्सिी घात में उनका मतभेद या विरोध भी होता है तो वे उसे मन में दया लेते है, खुलकर कुछ नहीं रहते । अवसर पड़ने पर धीरे से अपना मत प्रस्ट कर देते हैं।
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