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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१३८

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मेरी बालकहानी १३३ सन् १९०० मे मै एक महीने की छुट्टी लेकर हिंदी पुस्तको की खोज में वायू राधाकृष्णदास के साथ मथुरा और जयपुर गया। इस यात्रा से मैं सितवर के आरंभ में लौटा। उसके कुछ दिनो पीछे मेरे पिता को पक्षाघात हो गया। इस रोग का यह तीसरा आक्र- मण था। बहुत चेष्टा की गई पर कोई फल न हुआ+२२-सितंवर को उनका देहांत हो गया। अब मुझ पर आपत्तियों का पर्वत पड़ा। घर में माता, स्त्री, पाँच भाई, दो भौजाइयाँ और दो मेरे पुत्र थे। मुझे लेकर इन १२ प्राणियों के भरण-पोषण का भार मेरे अपर पड़ा। मेरी आय उस समय ४०), ४५) महीना थी। इससे क्या हो सकता था १ इतनी ही कुशल थी कि मेरे पिता का है हिस्सा तेजाव के कारखाने (कृष्ण कंपनी) में था जिससे हम लोगो को ५०) महीना मिलने लगा। इससे किसी प्रकार गृहस्थी का काम चलने लगा। मैने घर पर कुछ विद्याथियो के पढ़ाने का आयोजन भी किया जिससे ३०), ४०) मासिक मिल जाता था । यह क्रम कुछ दिनो तक चला। फिर छोटा भाई भी कुछ सहायता करने लगा। पिता की मृत्यु को अभी एक वर्ष भी न हुआ था कि मेरे एक सर्वधी ने मेरी मां से उस ऋण के विषय में कुछ कति की, जिसे मेरे पिता ने उनके पिता से लिया था। माता मेरे सामने आकर रो पड़ी। मुझे बड़ा दुःख हुआ, पर जिसका कुछ वेना है वह यदि कुछ कटु वाक्य कह बैठे सो उसको सह लेने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या था। उस समय मेरी आयु २५ वर्ष की थी। शरीर में शक्ति और उत्साह हुआ था, साथ ही में