सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३४ मेरी आत्मकहानी अपमान नहीं सह सकता था। जोश में आकर मैने माता के सामने प्रतिमा कर दी कि जब तक मैं यह ऋण न चुका लूंगा तब तक पिता का वार्षिक श्राद्ध न करूँगा। प्रतिज्ञा तो कर ली पर अब यह सोच हुश्रा कि सीन-चार हजार रुपया कहाँ से आवेगा जिससे यह शृण चुके। बहुत आगा-पीछा करने के अनंतर मैं अपने एक सदार मित्र के पास बाहर गया। उनसे मैंने सव व्यवस्था ठीक-ठीक कह दी और पांच हजार का ऋण मांगा। उन्होंने उसी समय इजार हजार रुपये के पांच नोट निकालकर मेरे सामने रख दिए । मैंने एक रसीद निख दी। यह ऋण मैंने धीरे-धीरे चुका दिया, पर उन्होंने एक पैसा भी व्याज न लिया। साथ ही अपना नाम प्रकट न करने को मुमसे प्रतिक्षा करा ली । मैंने काशी लौटकर उस शृण को चुकाया और तब पिता का वार्षिक प्राव किया। मेरे चाचा और पिता की रोटी पारंम में एक ही में थी। पर मेरे पितामह लाला नानकचंद की मृत्यु के पीछे दोनों का चूल्हा अलग-अलग हो गया। पिता की मृत्यु के उपरांत चाचा ने एक मकान खरीदा और वे यथा-समय उसमें चले गए। चलवे समय उन्होंने हम लोगों में से किसी से बात भी न की, ले जाकर अपने साथ रखना बो दूर रहा। वे क्यो अपने बड़े भाई को सतति का बोम अपने ऊपर उठाने लगे थे, यद्यपि ईश्वर ने उन्हें यह शक्ति दी यी कि वे ऐसा सहज में कर सकते थे। ऐसा सुनने में आया कि उन्हें अपने गुजराती गुरु फी स्त्री से पचास हजार रुपये मिले थे। यह कहाँ तक सत्य है, मैं नहीं कह सकता। अस्तु. जिस दिन - ,