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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१४०

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मेरी पालकहानी १३५ पिता पर पक्षायात का आक्रमण होनेवाला था उसकी पहली रात को उन्होंने मेरी माता से कहा था कि तुम किसी बात की चिंता मत करो। तुम्हारा बड़ा लड़का सबका पालन-पोपण करेगा। मैं उसके नाम अपना तेजावसान का हिस्सा लिख दूंगा। पर वे अपनी इन्चा पूरी न कर सके। यदि वे यह कर जाते तो मुझे वे सब आपत्तियां न मेलनी पड़ती जो आगे चलकर मेलनी पड़ी। इम समय की आर्थिक कठिनाइयो को दूर करने के लिये मुझे भौति-मति के उद्योग करने पड़े । सन् १९०२ मे मुझे पंडित श्रीघर पाठक ने, जो उस समय इरीगेशन कमिशन के दफ्तर के सुपरिटेट थे, १४०) मासिक पर उस दफ्तर में रिपोर्ट छपवाने का काम करने के लिये बुलाया। मैंने हिंदू कालेज से १ वर्ष की छुट्टी ली और शिमले गया, पर वहाँ मैं दो-तीन महीने ही रह सका। पहली बात खो यह थी कि पाठक जी का रहन-सहन और खान-पान मेरी प्रकृति और रुचि के अनुकूल न था। दूसरे मेरे ताल मे एक फोड़ा हो गया था जिससे मुझे वडा भय हुआ। डाक्टर को दिखाने पर उन्होंने उसे छेद दिया, पर वह फिर भर गया। ऐसा कई घेर हुआ और मैं घबड़ा गया। अंत में मैं वहाँ की नौकरी छोड़कर काशी लौट आया और कई महीनों तक घर-उधर टकर मारता फिरा । जीवन निर्वाह का कोई उपाय नहीं लगा। इस अवस्था में मुझे सरस्वती का संपादन स्वत: छोड़ना पड़ा। किसी तरह रो-पीटकर काम चलता रहा। हिंदू कालेज में मेरे पुन. आने का मिस्टर बैनबरी ने बड़ा विरोध किया पर अंत में घावू गोविंददास की कृपा से मैं वहाँ बुला लिया गया।