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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१४२

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" मेरी भात्मकहानी है। संयोग से उसी दिन संध्या समय कारमाइकल लाइब्रेरी के पास कोठी से वगीचे जाते हुए बाबू गोविंददास मिल गए। मैंने उनसे सब बातें कह दी और त्याग-पत्र देने की अनुमति मांगी। उन्होंने मुझे कोमल शब्दों में फटकारा और कहा 'ठहरो, देखा जायगा। अस्तु, उनके उद्योग और मिस्टर आरेंडल के सहयोग से मैं स्कूल से कालेज में अंगरेजी का जूनियर प्रोफेसर बनाकर भेज दिया गया। वहाँ कोई २, २३ वर्ष तक मैंने कार्य किया। जिस दिन मैं पहले-पहल कालेज में पढ़ाने के लिये गया उस दिन मेरे विद्यार्थियों ने बड़े उल्लास के साथ मेरा स्वागत किया। यह सब होते हुए भी मेरी आर्थिक अवस्था शोचनीय थी। अनेक बार उद्योग करने पर मेरा वेतन १००) हो गया था, पर छोटे भाइयों की पढ़ाई तथा उनके विविध संस्कारों के करने मेजो व्यय उठाना पड़ता था वह बहुत बड़ा था। इस समय मैंने तीन भाइयो की चोटी, जनेऊ तथा एक का विवाह किया और अपने बड़े लड़के की चोटी उतरवाई तथा जनेऊ किया। यह सब वो आफ्ते थी हो, इधर सन् १९०८ मे मेरी स्नेहमयी माता का देहांत हो गया। उसके उपरांत तीसरे माई रामकृष्ण और मेरे तीसरे लड़के सोहनलाल को टायफाइड बुखार हो गया। रामकृष्ण का तो उस रोग से सन् १९०९ मे देहांत हो गया। सोहनलाल ४० दिन धीमार रहकर अच्छा हुआ। पर अभी आपचियो का अंत नहीं हुआ। इसी वर्ष मेरी एक भौजाई तथा उनके दो बच्चों का देहांत हुआ। मैं घबड़ा गया । शहर और घर मुझे काटने लगे। इस समय मेरे मित्र पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र ने,