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पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१४३

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१३८ मेरी पालकहानी जो उन दिनो काशी ही में थे, मुझे बहुत द्वादस दिया । उन्होंने कहा कि तुम घबड़ाओ नहीं. मैं काश्मीर में तुम्हारी नौकरी का घंदोबस्त करता हूँ।वे जम्मू गए और उद्योग में लगे। अंत में स्विघर सन् १९०९ में उन्होंने मुझे तार देकर जम्मू बुलाया। मैं नौकरी और घरवार छोडकर वहाँ चला गया। पर वह नौकरी मिलने में घड़ी कठिनाई हुई । किसी तरह उद्योग करके महाराज के स्टेट आफिस मे एक स्थान मिला। पडित दुर्गाप्रसाद बड़े शाह-वर्ष थे। उनके खर्च से मैं वंग आगया। इघर बनारस से चिट्टियाँ पाने लगी कि मेरी गृहस्थी दुखी है। उनको ठीक ठीक भोजन मिलना भी दुलम हो गया था। दो सबसे छोटे भाइयों की भी यही दुर्गति थी। वे बहुत मार खाते थे। कभी-कमी ये लोग चने सुनवार पेट भरते थे। इससे तंग आकर मैं अप्रैल में काशी पाया और अपनी स्त्री तीनों लड़कों क्या दो छोटे भाइयों को साथ लेकर काश्मीर चला गया। इस घटना का मुझ पर इतना प्रभाव पड़ा कि मुझे एक |विनका भर चीन भी घर से लेने की रुचि न हुई। कहां तक कहूँ, मुरादाबाद स्टेशन पर पानी पीने के लिये गिलाम स्वरीग और रावलपिटी में खाना पकाने के वर्णन मोल लिए। इस प्रकार गृहस्थी का नया आयोजन हुआ। श्रीनगर पहुँचने पर फिर कुछ सुख से रहने लगा पर वहां का वातावरण मेरे अनुकूल न था। वहाँ दल- बंदी और पस्यों का प्रावल्य था। किस दल में रहे, म्सिमें न रहे इस प्रश्न का हल करना कठिन था। यहाँ एक महाशय से मेंट हुई जिन्होंने मेरा १०००), तो मेरे भाई ने कुछ काश्मीरी माल