"१३९ मेरी आत्मकहानी खरीदने के लिये मेजा था, ठग लिया। निदान किसी प्रकार दो वर्ष यहाँ विताए। लड़कों को लाहौर के दयानंद ऍग्लो वैदिक स्कूल में भरती कर दिया। उस समय बोडिंग हाउस के सुपरिटेंडेंट मेरे पुराने शिष्य जानकीप्रसाद सामंत थे। लड़को को उन्हीं के सुपुद किया। पर मेरे हितैपियो ने यहाँ भी मुझे चैन न लेने दिया। सबसे छोटे भाई को बहकाकर काशी बुलाने का वे उद्योग करते रहे। चुपचाप उसके पास रुपए भी भेजते रहे। इन्हीं की कृपा से सबसे छोटे भाई का जीवन नष्ट हो गया। वह उच्छृखल हो गया। न काशी मे उसका मन लगता था न मेरे साथ। उसका पढ़ना-लिखना छूट गया और बुरे लोगो के साथ में उसे आनद आने लगा। निदान १९१२ के अक्टूबर मास में मैं काशी पाया और यहां से त्यागपत्र भेज दिया। इसके उपरांत में कई महीने तक बीमार रहा। गुदास्थान में फोड़ा हो गया था। मेरे मित्र डाक्टर अमरनाथ वैनर्जी ने उसे चीरने की सम्मति की और उस काम के लिये मुझे श्लोरोफार्म सुंघाने का प्रबंध किया गया पर मैं बेहोश न हुआ। अंत में खैरातीलाल हकीम की दवाई से मैं अच्छा हुआ। यह काल घड़ी विपत्ति मे कटा। अंत में जुलाई सन् १९१३ मे मैं धायू गंगाप्रसाद वर्मा के निमंत्रण पर लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल का हेड मास्टर होकर वहाँ गया। काश्मीर जाने के पहले मेरे प्रस्ताव पर काशी-नागरी-प्रचारिणी समा ने हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन करने का निश्चय किया। इस अधिवेशन में मैं जम्मू से काशी पाया था। सम्मेलन
पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१४४
दिखावट